Wednesday, January 23, 2013

Guru Tatva-A Lecture by Shripad Baba


गुरुतत्व*

           श्रीपाद बाबा’, संस्थापक और संचालक, ब्रज अकादमी, वृंदावन          

            इस सम्पूर्ण अखिल और निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त जो गुरु तत्व है- चक्षुरून्मीलितम् येन् तस्मै श्री गुरुवे नमः - उसका सानिध्य और उसकी करुणा दृष्टि को उन्मीलित कर देने में समर्थ है। एक भाग जीवन रूपी अंधकार से सम्पूर्ण प्रकाश की स्थिति में स्थापित कर देने की उसकी क्षमता है। प्रति क्षण जो हमारे जीवन के प्रवाह को करुणा और कृपा से सींच कर कृतार्थ कर देने के लिए आतुर है वह सम्पूर्ण विभुता, व्याप्ति, अखंडता और परमात्म तत्व की धारण करता है। वह अपनी अपार करुणा से हम सब जीवों के जीवन को कृतार्थ करता है और हृदय का एकमात्र सानिध्य है। गुरुतत्व की खोज हमारे प्रत्येक श्वांस का विषय बना हुआ है। प्रत्येक जागृत, स्वप्न और सुसुप्ति की स्थिति में उसका निरंतर अनुसंधान बना हुआ है। एक बार जब यह अनुसंधान हमारे जीवन में आकांक्षा और समर्पण का विषय बन जाता है तब अनंत पूर्व जन्मों की, वर्तमान और आने वाले समय की सारी अवधारणाएं ज्योतिर्मय होने लगती है। गुरु तत्व से सतत प्रवाहित होने वाले आलोक की एक किरण जब हमारे जीवन को व्याप्त करती है तो कोई अभाव नहीं रहता है। सदा सर्वदा इसकी पूर्णता सम्पूर्ण देशकाल जनित प्रवित्तियों को चिन्मय बना देने में समर्थ है।

            गुरु तत्व का अनुसंधान हमारी उपासना बन कर, हमारे श्वांस प्रति श्वांस में स्थिरता बन कर, हमारे जीवन का पाथेय  बन जाय। गुरु का अनुसंधान, जीवन का आधार बनकर, जीवन का आधार बनकर, जीवन की उपासना भूमि में विराजमान होकर और उसके उपरांत जो चिन्मय वृन्दावन है उसका आलोक बिखेरने में सतत उत्सुक है। वृन्दावन की विकसित होने वाली भाव-भूमि अथवा रस-भूमि, गुरु की अवधारणा और गुरुकृपा का ही संस्पर्श है। भावना की अनवरत स्थिति में, जब सम्पूर्ण अभाव और काल जनित प्रवित्तियाँ ठहर जाती है, उस समय नित्यता के प्रकाश में जीवन दिखाई देने लगता है। जब तक नित्यता के प्रकाश में जीवन का दर्शन नहीं होता है तब तक जीव अभाव, कुंठा, उत्पीड़न, निराशा, भय और काम-क्रोध-लोभ-मोह जैसे अहंकार-जनित प्रवित्तियों से आछन्न रहता है। यह सारी प्रवित्तियों, जो अज्ञान, अहंकार और अनात्मा जनित है, उनको सम्पूर्ण शरणागति में पहुंचा देने के लिए जब हम हृदय का द्वार खोल देते है तब अपना वास्तविक स्वरूप और अपने स्वरूप में निहित नित्य-एकरसता और नित्य रस-संबंध प्रकट होने लगता है। इसके प्राकट्य के साथ ही विस्मृति के कारण जो नित्यता का अभाव रहता है वह अभाव, विस्मृति के बाद जो सतत स्मृति है, अर्थात काल के बाद जो अखंड चेतना की अवस्था है, में जाकर विलुप्त हो जाती है। तो इस तरह करके जो एक अखंड स्मृति का अतिरेक है वह जीवन में जागता है। और वही फिर हमारे अन्तःकरण के मल-विक्षेप आवरण का पूर्ण रूप से समाधान करके और जो वृन्दावन निधि है उसको प्रकाशित करने में समर्थ होता है।

            इस धारणा को, इस स्वभाव को और इस स्पंदन को निरंतर ग्रहण करने की जो आकांक्षा है, वही साधना है। जब तक यह आकांक्षा नहीं जागृत होती है तब तक सारे प्रयास, सारी साधना और जितना भी कुछ साधन-साध्य है वह सब अधूरा ही है। जिसके प्रयास से और जिसके क्षण के स्पंदन से कुछ भी किया हुआ अद्भुत और अपने वास्तविक स्वरूप के साथ हमारे भीतर अतिरेक बन जाता है, आनंद का उन्मेष बन जाता है, वह स्रोत खुलना चाहिए। उस स्रोत को खोलने की जो मांग है वही हमारे जीवन की वास्तविक मांग होनी चाहिए। वह स्रोत जीवन की तमाम क्षणिक प्रवित्तियों के आवरण में विस्मृत हो गया है। जिसके एक क्षण की स्मृति से आत्यंतिक आनंद का अतिरेक आच्छादित हो जाता है और मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार पीछे रह जाता है, वह जब अंतकरण में, हमारी धारणा में, हमारे जीवन के प्रत्येक स्थिति के साथ जो निरंतर रस भावित होगा वह हमें नित्य वृन्दावन के सानिध्य में ले जाने में समर्थ होगा। इस प्रकार से करके जो चिन्मय वृन्दावन की रस और प्रेम-भूमि है वहाँ पर संबंध-बोध की हिलोरें उठने लगती है और फिर इसी पार्थिव शरीर, इसी पार्थिव शरीर में लीला का  अनुसंधान स्मरण होने लगता है। यह संबंध बोध, जो केवल कृपा से ही और कृपा के सानिध्य से पल्लवित, पुष्पित और विकसित होता है, उसके लिए अनुकूल वातावरण, अन्तःकरण में एक अनुकूल भाव का सृजन और भावना-भावित प्रवित्तियों का पुनर्जागरण हो ताकि, जड़ता समाप्त होती रहे और उसके बदले जो प्रेम की चिन्मयता है वह जागृत होती रहे। इस प्रकार का अनुसंधान बना रहे। अंत:करण के पटल पर जो अतीत है, गया हुआ, बीता हुआ काल है, बना रहता है। इसी कारण से नित्य नूतन में प्रवेश नहीं होता है। भावना से अभाव को समाप्त करने का जो प्रयास है वही अपने औए अपने उपास्य को, अपने और अपने उपास्य के बीच जो गुरुतत्व है उसको समझने का और उसकी कृपा के सहारे आगे बढ़ने का उपाय है। जो अपर जड़ता और माया का प्रभाव है और जो जीवन के अपने कर्मों की जड़ता है उस सब को उपासना, उपास्य और उपासक के बीच सेतु बना हुआ गुरु तत्व अपनी करुणा से समाधान करता है। ऐसे सानिध्य को अपने आप को खाली करके ही पाया जा सकता है। जब तक यद् किंचित हमारे अस्तित्व, हमारे अहंकार की प्रवृत्ति और इन प्रवृत्तियों के सहारे जो देशकाल खड़ा हुआ है, उसका निराकरण नहीं होता है तब तक वह हमारे अनुसंधान का विषय नहीं है। इसलिए भावना की नित्यता में जाना है, भावना की नित्यता का बोध करना है। यह जो हमारे पर आरोपित तीन काल में नहीं है फिर भी प्रतीत होने वाली जड़ता है उसे भावना की सानिध्य से मिटा देना है। हमारे हृदय की एकांतिक भावनाएं नित्य साम्राज्य से सीधे उतर कर हमारे हृदय कुहर में प्रेम की विहवलता लेकर आ रही है। किन्तु, जैसे ही अज्ञान के तिमिर से आच्छादित, अहंकार से जनित प्रवृत्तियों का इस भावना से स्पर्श होता है, वैसे ही ये निर्मल भावनाएं, जो हमारे हृदय में अतिरेक उत्पन्न करना चाहती हैं, या तो नित्यलीला से अवतरित भावनाओं का संस्पर्श करके जीवन को कृपा का प्रसाद देने में समर्थ हो सकती है, हमारी अज्ञानता से आच्छादित हो जाती है। किन्तु, यह प्रक्रिया एक अनवरत प्रक्रिया है। यह तब तक चलेगी जब तक कि पुनः ऐसी करुणा हमारे अंतकरण से प्रत्यावर्तित नहीं होती है जो एक नित्य स्थिरता को, नित्य अनुसंधान को पुनः स्थापित कर दे।

            कहने का तात्पर्य यह है कि वृन्दावन और वृन्दावन में विराजमान श्री राधा-कृष्ण तत्व हमारी भावना का विषय हो। उनकी सन्निधि, हमारे चिंतन का विषय हो और हमारे अन्तःकरण पर निरंतर उनकी लीला का अनुसंधान ही थिरकता रहे। यह तब तक चले जब तक कि उसमें एक नित्य स्थिति न आ जाए और जो नित्य-नूतन है, वह हमारे हृदय में कृपा करके विराजमान न हो जाये। इसलिए नाम के आश्रय से भावना को गति प्राप्त कराने की व्यवस्था है। श्वास-प्रति-श्वास में उठनेवाली लहरें हमको निरंतर भाव से भावित कर देने में सक्षम है। हमरी चेतना के पीछे, जो एक रस समुद्र उमड़ रहा है वही हमारे श्वास और प्राणों में उद्वेलित हो रहा है, उसी में श्वास लिया जा रहा है और यह श्वास उसी की थिरकन है। जब तक इस बात का पता नहीं चलता, तब तक हम जड़ता को ही जीवन बनाए हुए हैं और जड़ता में ही जी रहे हैं। जब यह ज्ञान हो जाता है कि प्राणों के भीतर जो रस-समुद्र है, वही हमारे जीवन की धारणा है, तब कृपा प्लावित भावना हमारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि को अपने में आत्मसात करती है, समाहित करती है। यह उसका कार्य है। जहां तक प्रयास-साध्य, साधना-साध्य करने का कार्य है, वह समर्पण का एक सोपान ही तो है। किन्तु इसके बाद जो इसमे अंतर्निहित है वह तो अपना कार्य कर रहा है। अतः इस अवधारणा को लेकर अपने भीतर प्रेम को स्थापित करना है। जैसे ही प्रेम स्थापित होगा वैसे ही जो कृपा की सम्पूर्ण व्याप्ति है और उसका सम्पूर्ण सानिध्य है वह हमारे हृदय में उठ खड़ा होगा। इसी भावना को, इसी चिंतन को, इसी धारणा को यदि हम जीवन के प्रत्येक श्वास से जोड़ दें, तो व्यक्तित्व की जो समग्रता है, जाग्रत-स्वप्न-सुसुप्ति के आवरण के परे एक विस्तृत चेतना के साम्राज्य में जो नित्य वृन्दावन का परिवेश है- जिसका वलय, जिसकी ज्योति हृदय को आच्छादित किए हुए है- उसका अनिभाव हमें इसी देशकाल में होने लगेगा। इसलिए, सूक्ष्माति-सूक्ष्म जो भावना का निमज्जन है, निरंतर कृपा का अनुसंधान है, उसमें शरणागति लेकर मैं नहीं हूँ और तुम्हारी कृपा ही सर्व समर्थ है इसका प्रति-क्षण बोध होना चाहिए। जब सम्पूर्ण जड़ता उसमें विलीन होने के लिए आगे बढ़ेगी तब जिस अनुभव हो हम जन्म-जन्मांतर से छोड़ आए थे, जो जीवन की आध्यात्मिक चेतना का अनुभव है, उसका प्रादुर्भाव होने लगेगा। इसलिए नाम की भावना के साथ जो स्वरूप का चिंतन है, संबंध-बोध है, वह स्पंदित होना चाहिये। तभी उसमें जो नित्य वृन्दावन का जो लीलातिरेक है वह खुलेगा। ऐसी स्थिति इस देह के भीतर जो अदेह तत्व है, पाँच भौतिक और गुणात्मक प्रकृति के जो चिन्मयता है, दिव्यता है, वह अनुसंधान का विषय बनेगा। अन्यथा, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, आदि जो शुद्ध चिन्मय है नित्य-शुद्ध-बुद्ध है, उसके ऊपर आवरणित बने रहेंगे और फिर, जो कालजनित है अथवा गुणात्मक है, पंच भौतिक है, इसी में जो कुछ अद्भुत व्याप्त है वही हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण का पाथेय बन जाएगा। अतः इसी भावना, इसी आकांक्षा और इसी व्याकुलता को लेकर प्रत्येक क्षण अपने में जाग्रत होना है और जब हम सतत जाग्रत होंगे तब स्वतः ही एक चेतना का वृत्त अपने अंदर अनुभव होने लगेगा।

            श्री व्यास जी महाराज, जो आदि गुरु है, ने अपार करुणा से प्लावित और उद्वेलित होकर प्राणियों के लिए, जीवों के लिए गुरु परंपरा को प्रशस्त किया। वे अधिष्ठान के रूप में, अधिष्ठान तत्वों के रूप में, प्राणी के हृदय में, हम सब के हृदय में, विराजमान है। जीव के हृदय में गुरु और शिष्य तत्व, जो निरंतर संबंध स्थापित किए हुए है, उसका अनुसंधान सम्पूर्ण मंगल और कृपा की मूर्ति श्री गणेश जी महाराज कराते हैं। तदन्तर, शिव तत्व उसको कृतार्थ कर जीव की जड़ता को शरणापन्न कर देने में समर्थ होता है। तब भक्ति का प्रादुर्भाव होता है। भक्ति के प्रादुर्भाव से स्वरूप का अनुसंधान होता है और स्वरूप का अनुसंधान होते ही, जो जीव का नित्य-शुद्ध-बुद्ध स्वरूप है उसको मिल जाता है। इसके मिलने के साथ ही अनंत जन्मों की यात्रा एक क्षण में अक्षुण्ण बन जाती है। यही इस जीवन का गंतव्य है, यही इस जीवन का लक्ष्य है। इसको प्राप्त कर लेना अथवा जो नित्य प्राप्त है उसका अनुभव कर लेना हमारे जीवन की आंतरिक मांग है।

            इस प्रकार इस भावना, इस सानिध्य। इस चिंतन, इस समर्पण और इस जिज्ञासा को, जो जीव के हृदय में निरंतर विराजमान और भगवत तत्व को विराजमान करने के लिए व्याकुल है, उसकी और अभिमुख होना है। अन्तःकरण के प्रत्येक स्पंदन से, इस मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की प्रत्येक व्यवस्था से, इस सानिध्य को जोड़ना है। यह सानिध्य जैसे ही जुड़ेगा, निरंतर नामःस्मरण जो अभी केवल प्राणों के स्पंदन से है वह फिर लीला के स्पंदन से शुरू हो जाएगा और परा, पश्यंती मध्यमा और वैखरी, चरो वाणियां, उसका भजन करने लगेंगी। धीरे-धीरे, वाणी की जो सूक्ष्म स्थित है, वही आराधना में बादल जाएगी। यहीं जो हमारे जीवन का प्रमाद बना हुआ है वही उपासना बनकर जीवन कोओजस्वी बनाने में समर्थ होगा। वह जो हमारे जीवन का परम लक्ष्य है, हमारा प्रेष्य हो जाएगा और हमारी उपासना का आधार बन जाएगा इस परंपरा को ही गुरु  परंपरा कहते है। इसी की अवधारणा करनी है। जितनी अवधारणा होगी, उतना ही यह सानिध्य हमें सुलभ होगा। इसकी सुलभता प्रति क्षण है यह मानके चलना है। इस आस्था व विश्वास के साथ जो अब, अभी और इस क्षण है, और जो हमसे अधिक हमको जानता है, जिसके जानने से ही हमारे में कुछ भी जानना संभव है, उस जाने हुए को जो अपना परम अभिन्न है, को जानना है।
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*A transcription of Baba’s speech on Gurupurnima Utsav (July 12, 1995) at Vraja Academy, Vrindavan-281121

 
 

Sripad Baba’s Blessings and Contributions in the Spiritual Journey of Shri Prabodh Chaturvedi

Sripad Baba’s Contributions in the Spiritual Journey of Shri Prabodh Chaturvedi Reminisces of Prabodh Chaturvedi: Excerpts from Gita Prabodh (pp.375-85)
प्रबोध चतुर्वेदी

इसके बाद भगवत अनुग्रह का दूसरा अति श्रेष्ठ पहलू आ गया और परमानंद को प्राप्त साक्षात शिव-स्वरूप अवधूत सन्त श्रीपाद जी का सामीप्य बरेली में प्राप्त हो गया। उनका प्रथम परिचय श्री उमा नाथ शुक्ला (जिला उद्योग अधिकारी) द्वारा कराया गया। स्वामी राम की तरह वे धोती (आधी पहने व आधी ओढ़े) रहते थे। शीतकाल में सेठ लोग उनको दुशाला या कम्बल उनके शरीर पर नहीं रहते थे क्योंकि किसी भी ठिठुरते दीन को देखकर वे उस कीमती वस्त्र को उनको दे देते थे। कुछ लोग उनके साथ नर्मदा कुण्ड गए थे। वे कहते थे की सारी पार्टी तो बहुत चक्कर लगाकर नर्मदा प्रपात (Narmada fall) के नीचे पहुँची परन्तु श्रीपादजी सबके सामने 1000 फुट नीचे कूद पड़े। शीतकाल में गंगोत्री केवल एक धोती पहने नंगे पैर पहुँच जाते। जब वहाँ के सन्त की कुटिया खटखटाते तो सन्त कहते कौन श्रीपाद? और कौन ईस समय यहाँ आ सकता है?” एकबार मेंने स्वयं अपनी आँखों के सामने देखा की उनके पैर में एक बड़ी कील लगभग 1.5 इंच की घुस गयी। साथ में उस समय मैं था और एक असिस्टेंट सर्जन तथा श्री उमानाथ शुक्ला थे। डॉक्टर साहब ने चिन्ता व्यक्त करते हुए उसको निकालकर मरहम पट्टी कराने ले चलने को कहा। परन्तु उन्होने मुस्कराते हुए मना कर दिया। बाद मे सबने आश्चर्य से देखा की पैर में कोई कील नही थी और न जाने 1.5 इंच का घाव कैसे एक दिन में पुर गया।
बरेली के आनन्द आश्रम में प्राय: श्रीपादजी आत्मानन्द की समाधि अवस्था में डूबे हुए एकान्त में  बैठे रहते थे। थोड़ा शरीर भाव में आने पर पूछने पर कहते थे नि:संकल्प अवस्था में आत्मा परमात्मा में डूबी रहती है। In thoughtless state the soul mingles itself with supreme.” कभी मुझसे बाल्टी द्वारा नल से पानी मंगवाकर 108 घड़े से शिवजी का स्नान कराकर चन्दन आदि लगाकर शिवजी का अभिषेक करते थे। निरन्तर उनकी सेवा में लगे रहने से एक बार दिनांक 25-5-68 को प्रसन्न होकर उन्होने मेरी इच्छा पुछी। मैने शिवजी के साक्षात्कार की अभिलाषा व्यक्त की। वे मुस्कराकर चुप हो गए। उसी दिन शाम को मै, शुकलजी व डॉक्टर साहब श्रीपादजी के साथ सत्संग हाल में भगवान की मूर्तियों के सामने बैठ थे। श्रीपादजी यकायक बिल्कुल शान्त हो गए और मेरी तरफ मंद मुसकान से देखा। यकायक परम आनन्द का अनुभव करते हुए मेरी आँखें बन्द हो गईं। शरीर में से प्रकाश की किरणे निकलती दीखने लगीं और शरीर की हड्डियों का ढाँचा अन्दर से आने वाले प्रकाश से जगमगाने लगा । इसके बाद एक इंच diameter के आकार का तेज गोल प्रकाश दिखाई पड़ा। फिर उस प्रकाश के अन्दर भाल पर त्रिपुण्ड लगाए शिवजी के दिव्य दर्शन हुए जिनकी आकृती श्रीपादजी से मिलती-जुलती थी। कुछ समय के लिए अवर्णनीय परमानन्द की अनुभूति होने के बाद शिवजी का दिव्य रूप गोल प्रकाश में विलीन हो गया और फिर छोटा गोल प्रकाश भी शरीर को प्रकाशित करता हुआ शान्त हो गया। उस अलमस्त अवस्था से जागने पर कुछ प्रयास से ही पलकें उठाई जा सकीं। आँख खुलने पर मन्द-मन्द मुस्कान युक्त श्रीपादजी को देखकर प्रेमानन्द में उनके चरणों में सिर रख दिया। श्रीपादजी ने सिर पर वरदहस्त फेरकर मेरा पुलकित शरीर उठाया। आश्चर्य यह था की दोनों साथी बैठे रहे उनको कुछ भी पता न चला। बाद में अगले दिन प्रातः एकांत में बैठे हुए मैंने श्रीपादजी से आभार प्रकट करते हुए ध्यान योग समाधि का लाभ कराने की प्रार्थना की। उन्होने कहा इसके लिए तुम्हारा दूसरा अति श्रेष्ठ गुरु हिमायल में पूर्व ही निर्धारित है”।
उसके बाद श्रीपादजी की आत्मविभोर अवस्था में उनके साथ आधी-आधी रात तक रहकर और यदाकदा सत विचारों को सुनते हुए निरन्तर सेवा में रहा। इसी दौरान एक बार उनको अति प्रसन्न मुद्रा में पाकर मेंने उनसे ध्यान योग के गुरु को प्राप्त कराने की प्रार्थना की। श्रीपादजी मुस्करा दिये। अगले दिन पाया की उनकी संकल्प शक्ति से ज्योषीमठ, बद्रीनाथ आदि के निरीक्षण का सरकारी दौरा मेरे लिए निरधारित हो या। मैंने जब शाम को आकर यह सूचना दी तो उन्होने कहा कि उसी मार्ग में तुम्हारी गुरु से भेंट होनी है। पूर्व रिपोर्ट पूर्ण करके दे देते ही दौरा आरम्भ करने का आदेश था। अतः शीघ्र जाने की उतावली में रविवार को प्रातः 7 बजे से उद्योग कार्यालय में बैठकर रिपोर्ट टाइप करना प्रारम्भ कर दिया। कार्य समाप्त करके शीघ्र जाने की लगन में खाने पीने की सुधि भी नहीं थी। परन्तु आश्चर्य से देखा की ठीक 12 बजे दोपहर को एक अपरिचित पंजाबी महाशय टिफिन कैरियर में खीर पूड़ी आदि सुन्दर भोजन लेकर उपस्थित हैं। मैने उनसे कहा आप शायद कुछ भूल तो नहीं रहे क्योंकि मेरा आपका कोई परिचय नहीं है।  उन्होने बड़ी दृढ़ता से कहा मुझे श्रीपादजी ने प्रातः 9 बजे कुछ झपकी ने पर स्वप्न में आपके पास उद्योग कार्यालय में खीर पूड़ी पहुंचाने का आदेश दिया था। स्वप्न में दीखे अनुसार व्यक्ति बिलकुल आप हैं।सन्त के उस परम अनुग्रह प्रसाद को मेंने अपने बर्तनों में लेकर महाशय को बहुत बहुत धन्यवाद देकर टिफिन कैरियर वापस कर दिया। जिस पर श्रीपादजी की इतनी असीम कृपा है उस मेरे भाग्य की वे सराहना करते हुए चले गए। सन्त की अहेतुकी कृपा पर प्रेमाश्रु बहाते हुये मैं प्रसादी पाकर पुनः कार्य में लग गया। सांयकाल 4 बजे कार्य समाप्त करके रिपोर्ट वित्त अधिकारी को देकर मैं यात्रा पर जाने को आतुर बड़ी प्रसन्नता से श्रीपादजी के पास पहुँचा। उन्होने पहले से ही मेरे गुरु के लिए भेंट रूप में देने को किसी भक्त द्वारा एक पोर्टेबिल रेमिंगटन टाइपराइटर, कुछ कागज व दो पैकेट बिस्कुट मंगाकर तैयार रखे थे। पहुँचते ही वह सामान मुझे देते हुए एक पत्र देकर मेरे गुरु का पता ठिकाना बता दिया।

उस रात्रि 8 बजे मैं एक और निरीक्षक साथी के साथ ट्रेन से हरिद्वार को रवाना हो गया। रास्ते में भीम तल्ला (चमोली) पर कुछ दिन की निरीक्षण पर रुकना था। वहाँ पर एक दिन सांयकाल बेडमिंटन खेलने में कुछ पैर ऐसा मुड़ गया की पैर के छ्गुनी के ऊपर स्थान पर बड़ा दर्द हो गया और सारा पैर सूज गया और चलना कष्टप्रद हो गया। परन्तु अपनी लगन में उस पर गीली मिट्टी थोप-थोप करके चलते गए। ज्योषीमठ का कार्य समाप्त करके शनिवार को दोपहर को मैंने अपने साथी को सारा सामान लेकर अगले पड़ाव बद्रीनाथ को बढ़ाया और मैंने टाइपराइटर आदि गुरुजी का सामान लेकर बीच में गोविन्द घाट पर उतारने को बस कंडक्टर के विस्मरण हो जाने से उसने बाद में याद आने पर दो मील आगे जाकर उतारा और आगे ले आने के लिए क्षमा मांगी। मैं उतरकर पीछे की तरफ कड़ी धूप में टाइपराइटर पीठ पर लादकर चला। उस समय दो बजे धूप में मोटरों के अतिरिक्त कोई पैदल चलने वाला मिला ही नहीं जो नीचे गोविन्द घाट को उतरने का रास्ता बताता। निराश होकर एक स्थान पर खड़े होकर मैंने आतुर ह्रदय से भगवान से मार्ग दर्शन कराने की प्रार्थना की। व्याकुलता से आनन्द भाव होने पर भगवान से निश्चय तार मिल जाता है और वे किसी माध्यम से याद करने वाले भक्त की समस्या हल कर देते हैं। परन्तु भक्त को भी अनन्य निष्ठा से भगवान के संकेत को दृढ़ विश्वासपूर्वक समझने की आवश्यक्ता है। यकायक सामने एक बड़े बाल का काला कुत्ता दिखाई दिया। वह एक नीचे जाने वाली सड़क पर उतरा और लौटकर पुनः ऊपर आकर बड़े स्नेह पूर्ण नेत्रों से देखा। फिर जब वह नीचे को चला तो मेरी समझ में उसका संकेत आ गया और मैं उसके पीछे-पीछे नीचे चलने लगा। बीच में थककर मैं एक पुलिया पर बैठ गया और वह भी रुककर बड़ी करुणा से मेरी तरफ देखकर खड़ा हो गया। पुनः उठकर चलते ही वह आगे-आगे मार्ग दर्शक होकर चलने लगा और जैसे ही उसने नीचे मुख्य सड़क पर पहुंचाया वह आँखों के सामने ही एक साथ अदृश्य हो गया। प्रभु किस माध्यम से कौनसी अनुग्रह लीला कराके किस प्रकार सेवक पर कृपा दृष्टि करते हैं इसका अनुभव करके हृदय गदगद  हो गया।

आधा मील चलने पर पुलिस चौकी पर आगे जाने से रोक दिया गया क्योंकि चीन संघर्ष के बाद सुरक्षा के लिए उत्तराखण्ड के कुछ पर्वतीय क्षेत्रों में प्रतिबन्धित प्रवेश था। अतः आगे जाने के लिए जिला अधिकारी का प्रवेश पत्र आवश्यक था। अब न बद्रीनाथ जाना सम्भव था और न रात को बिना कपड़ों के ठंड में रहना सम्भव था। इसलिए विषय स्थिति में सर्वसमर्थ अंतरयामी परभू ही का आसरा लिया जा सकता था। अतः पुलिस चौकी के बाहर चबूतरे पर बैठकर बड़ी तन्मयता से भगवत चिन्तन करने बैठ गए। जैसे ही अपनी शक्ति का भरोसा छोड़कर अनन्यता से भगवत आश्रम लिया की भगवान ने पुलिस इंस्पेक्टर का हृदय परिवर्तन कर दिया और मुझे पुनः बुलवाकर पूछा आप किसके पास जाना चाहते हैं।मैंने श्रीपादजी का पता लिखा लिफाफा उनके हाथ में दिया। पता पढ़कर उसने क्षमा याचना करते हुए कहा वे तो महान योगी हैं आप उनके पास जा सकते हैं। इस समय कोई कुली होता तो आपका सामान उसके द्वारा आपके साथ भिजवा देता। थोड़े विलम्ब के लिए क्षमा करिएगा और स्वामी जी से मेरा सादर प्रणाम कहिएगा।मैं धन्यवाद देकर गीता का लोक स्मरण करते हुए चल दिया।

      वहाँ से भुइंडार स्थान जहाँ स्वामी अनुरूप किशन महाराज की कुटिया है करीब पाँच मील की लगातार चढ़ाई का था। करीब आधे रास्ता पार कर लेने पार एक स्थान ऐसा मिला जहाँ रास्ता दो मार्गों में बट गया था। एक सीधा तथा दूसरा बौया। उस समय सांयकाल 5 बजे कोई भी मानव वहाँ नहीं था जिससे रास्ता पूछा जा सके। गलत रास्ता पकड़ने से जंगल में फँस जाने का भय था। श्रीपादजी का उपदेश याद आया कि निसंकल्प परम शान्त भगवत समर्पित स्थिति में सर्वज्ञ आत्मा परमात्मा का एकत्व होकर हृदय स्वयं सत मार्ग प्रदर्शित कर देता है। अतः शांतिपूर्वक, एक शिला पर प्रभु समर्पित भाव से एक निष्ठ आत्मरत होकर बैठने पर अंतर्चेतना का सीधा मार्ग पर जाने का निर्देश प्राप्त हो गया। उसके बाद बड़े विश्वास से उस मार्ग पर चल पड़े। स्वामीजी के स्थान से करीब दो फ़र्लांग पहले एक व्यक्ति खड़ा हुआ मिला उसने पूछा आप स्वामीजी के पास आए हैं।मैंने कहा तुमको कैसे मालूम हुआ ?” उसने कहा प्रातः जब स्वामीजी जंगल में समाधि को गए थे तो मुझसे कह गए थे कि साँय 5.30 बजे एक सज्जन अवेंगे जिनको आगे से लाकर उनके स्थान पर पहुँचा देना।मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि चन्द घण्टों में यकायक चल देने से स्वामीजी को मेरे आने का कैसे पता लग गया। निश्चय ही यह स्वामीजी सर्वज्ञता का ही द्योतक था।

      इधर वह व्यक्ति मुझको लेकर पहुँचा उधर स्वामीजी भी जंगल की समाधि स्थल से उसी समय आये। श्रीपादजी को चिट्ठी के साथ सारा समान देखकर बड़े दुखी होकर बोले श्रीपाद ने व्यर्थ में आपको इतना कष्ट देकर यह संग्रह (टाइपराइटर) मेरे पास भेजा क्योंकि शायद मैंने उनसे स्वाभाविक वार्तालाप में कहा था कि मेरे द्वारा हस्तलिखित लेखों में छपने पर त्रुटियाँ बहुत हो जाती हैं शायद टाइप किए हुए में इतनी त्रुटियाँ न होती हों।मेरे बहुत मना करने पर भी उन्होने तुरन्त उस साथ आये व्यक्ति से चाय बनवाकर मेरे द्वारा ले जय गईं सारी बिस्कुटें मुझे ही खिलना प्रारम्भ कर दिया। प्रथम मिलन में इतना अधिक प्रेम और करुणा भाव देखकर मुझे ज्ञात हुआ कि तुलसीदास जी द्वारा वर्णन किया गया सन्त हृदय नवनीत सामना कितना कोमल होता है। मुझको सारे दिन दी यात्रा से थकित और भूखा जानकार उन्होने तुरन्त कुकर में भोजन बनाने कि व्यवस्था आरम्भ कर दी और बड़े स्नेह से मेरे द्वारा प्रसादी प्राप्त कर लेने पर ही स्वंय प्रसादी पायी। फिर मुझे दो कम्बल देकर अपनी छोटी सी 8x8 फुट की कुटिया में बैठकर अध्यात्म चर्चा करते हुए ध्यान योग की मेरी जिज्ञासाओं का समाधान किया। महेश योगी द्वारा बताए गए मार्ग का छः साल अभ्यास करने से निःसंकल्प अवस्था तक पहुँचने की साधना समाधि लाभ के लिए बहुत लाभप्रद बतलाते हुए कहा कि पूर्ण समाधि अवस्था में पहुंचाने के लिए गुरु द्वारा निर्दिष्ट इष्ट आराधना आवश्यक है। निःसंकल्प के आगे समाधि कि पूर्ण अत्म्सक्षात्कार नित्य शुद्ध आनंदमय अवस्था में पहुंचाने में इष्ट कि गति है। जब साधक जड़ प्रकृति को छोड़कर निःसंकल्प अवस्था में जाता है तो प्रकृति का ही सूक्ष्म अंश उसके साथ रहता है इसलिए वह पत्थर कि तरह एक जड़ अवस्था को प्राप्त होता है परंतु जब वह इष्ट (पुरुषोत्तम) का ध्यान करते हुए भावातीत अवस्था में पहुँचता है तो वह ईश्वरीय चेतना का अंश व शक्ति प्राप्त करके पुरुषोत्तम के शुद्ध अखण्ड परमानन्द को प्राप्त करता है। सिद्धांतिक ज्ञान का उपदेश करके प्रातः विज्ञान (अनुभव जन्य ज्ञान) का अभ्यास करने को कहकर थके होने के कारण मुझे लेटने का आदेश दिया। उसके बाद कुछ लेखन कार्य करके स्वयं भी एलईटी गए। परंतु अर्ध रात्रि में करीब 1.00 बजे मेरी आँख खुली तो एक प्रकाश सा कुटिया में चमकता दीखा। ध्यानपूर्वक देखने से मालूम हुआ स्वामीजी समाधि में बैठे थे और अन्धेरे में उनका मुख प्रकाश युक्त होकर जगमगा रहा था। स्वामीजी रात्रि में किसी को अपने पास कुटिया में नहीं रखते और मुझको भी बाद में जब गया कुटिया के बाहर ही रखा परन्तु प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में इष्ट पूजन कि मानसिक विधि बतलाते हुए उसी समय अपनी शक्तिशाली चेतना से समाधि लाभ करवा दिया। एक घण्टे समाधि से जागने पर दस साल के अथक प्रयास कि सफलता पर प्रसन्नता का पार नहीं रहा। उसके बाद कुछ नियमों का आदेश देकर नित्य कर्म करने को कहा। अलखनन्दा के तट पर स्नान आदि सब नित्यकर्मों से निवृन्त होकर लौटने पर स्वामीजी ने जन सेवा कार्य करते हुए लोगों को होमोपैथिक कि निःशुल्क दवा मरीजों को देखते हुए देना शुरू किया। उसी समय एक वयक्ति आया जिसका चेहरा बड़ा विकृत हो गया था। मैंने चेहरा बिगड़ने का कारण पूछा तो उसने बताया कि स्वामीजी दिन में घोर जंगल में चले जाते हैं और गाँव वालों को वहाँ जाने से मना करते हैं क्योंकि उसमें हिंसक जीव रीछ, शेर आदि बहुत हैं। परन्तु वह एक दिन स्वामीजी की बराबरी करके जंगल में चला गया जहाँ पर एक रीछ ने उसके मुख पर पंजा मर कर घायल कर दिया। टैनियार छोटी कुल्हाड़ी कि मदद से किसी प्रकार वह जान बचाकर भागा। उसी समय स्वामीजी लौटते हुए उसे मिल गए। बाद में स्वामीजी कि दिव्य शक्ति से वह स्वस्थ हो गया अन्यथा रीछ के विषैले नाखूनों का घायल व्यक्ति ठीक नहीं हो पता। मुझको कुछ आहार करवाकर स्वामीजी ने मुझे श्रीपादजी को एक चिट्ठी देकर विदा किया और स्वयं जंगल कि तरफ चले गए।

      उस दिन रविवार कि छुट्टी होने के कारण बद्रीनाथ के कम्बल सेन्टर का कार्य तो करना नहीं था और भरी हुई बसें बीच में सवारी बड़ी कठिनाई से लेती हैं इसलिए कुछ तो बेबसी से और कुछ कठिनाईयों से खेलने के अपने स्वभाव से पैदल मार्ग से ही बद्रीनाथ चल पड़े। हनुमान चट्टी के आगे पहुँचने पर एक स्थानीय व्यक्ति ने बद्रीनाथ के लिए संक्षिप्त मार्ग एक बरफ के ग्लेशियर के सहारे जाते हुए बताया। अतः उस सीधी चढ़ाई के मार्ग का नया अनुभव प्राप्त करने को उस पर चढ़ चले। कुछ ऊपर चढ़ने पर इतनी सीधी चढ़ाई थी कि बैठ-बैठ कर घास पकड़ कर चलना पड़ा। काफी ऊपर चढ़कर जब मुख्य सड़क पास ही दस गज के फासले पर दीखने लगी तब मार्ग एक साथ नब्बेडिगरी कि सीघाई का चिकना तथा बिना घास के सहरि का आ गया। अब ऊपर चढ़ना असम्भव था और यदि प्रयास किया भी गया तो फिसल जाना अनिवार्य था जिससे हज़ारों फिट नीचे बहती बर्फीली अलकनन्दा में पहुँचते-पहुँचते पत्थरों में लुढ़ककर ठोकरें खाते हुए हड्डियों का भी पता निशान न मिलता। वापस उतारने के लिए जब नीचे दृष्टि डाली तो इतनी सीधी भयंकर नीचाई देखकर दिल बैठने लगा और उतरना भी असम्भव समझकर दोनों प्रकार मृत्यु सामने देखकर सारे घर परिवार से बिछोह कि ममता आँखों के सामने नाचने लगी जिनको इस गोपनीय अदृश्य मृत्यु का पता भी न चल सकेगा। दस मिनट मृत्यु के प्रत्यक्ष भयंकर क्लेश का अनुभव करने के बाद योगवाशिष्ठ के द्वारा डाले गए संस्कारों का स्फुरण हो आया और ध्यान में आया हिम्मते मर्द मर्दे खुदा।स्वयं कि हिम्मत के साथ भगवान भी मदद अवश्य करते हैं। आगरे में एक वृद्धा पड़ोसिन द्वारा बताया संकट निवारण का मंत्र याद आया निकी करेंगी करेंगी भली, वृषभान की लली वृषभान की ललीइस मंत्र को बड़ी आस्था के साथ गुनगुनाते हुए पुरुषार्थ का सहारा लेकर जूते उतार कर कमर में बांधे और नंगे पैर जमाते हुए घास को मजबूती से पकड़कर धीरे-धीरे बिना नीचे देखे उतरना आरम्भ किया। मंत्र की तन्मयता में पता ही न चलाकर राधारानी ने नीचे पहुँचा दिया। परन्तु सड़क सामने देखकर दूसरा जीवन प्राप्त करने के कारण हर्ष का परावार न रहा।

      बद्रीनाथ पहुँचकर तीन दिन के निरीक्षण काल में एक दिन प्रातः स्थानीय सेवक के साथ दो मील माना गाँव देखने गये। वहाँ पर आमने सामने व्यास एवं गणेश गुफा है जहाँ व्यासजी द्वारा अविराम बोलने की शर्त पर गणेशजी ने लेखन कार्य किया था। मुचकन्द गुफा है जहाँ मुचकन्द के द्वारा भगवान ने कालनेम को भस्म कराया था। जिस घोड़े पर तिब्बत से बद्रीनाथ जी आये थे वहाँ घोड़ा पत्थर का बना है। सरस्वती नदी में पैर रखने से द्रोपदी के पैर गलने का श्राप था इसलिए भीम ने बीस फुट लम्बा दस फुट चौड़ा पत्थर उसके ऊपर पुल बनाकर रखा है। वहाँ से स्वर्गारोहण का रास्ता है और सामने कुबेर पर्वत है। वहीं पर बद्रीनाथ की माँ की मूर्ती भी है। बद्रीनाथ के उस इलाके में श्राप है की सर्प आने पर पत्थर के हो जावेंगे। अतः जब कोई सर्प घास की पोटली में आकार किसी पत्थर पर रखते समय उस पर उतरा है तो पत्थर का हो गया। इसलिए अनेक स्थानों पर सर्प बने देखे गये। बद्रीनाथ के बाद गोपेश्वर अगस्त्मुनी, केदारनाथ आदि का निरीक्षण करके वापस बरेली पहुँचे।

      उत्तराखण्ड में निर्धारित गुरु द्वारा ध्यान समाधि का पाठ पढ़ाकर भगवान ने उसका अभ्यास करने को योगेश्वर विश्वनाथ के पास काशी भेज दिया जहाँ अगस्त 1968 से अगस्त 1969 तक योगाभ्यासी के रूप जो शरीर तखत पर भीषण शीत में भी एक कम्बल ओढ़कर रहता वही शरीर दो दिन छुट्टी के अवकाश में प्रयाग वकार गद्दे लिहाफ में भी शीत का अनुभव करता। जून की भीषण गर्मी में ध्यान समाधि के अभ्यास की मस्ती के बाद ही सो जाने से गर्मी का कोई अनुभव नहीं होता था यद्यपि प्रातः काल चादर पसीने से भीगी मिलती थी। प्रातः और साँय दो दो घण्टे गंगा किनारे एकान्त में ध्यान समाधि अभ्यास चलता था उसके बाद प्रातः थोड़ा अल्प आहार लेते थे और साँय केवल आम खरबूजा आदि फल व दूध का सेवन चलता था। कभी-कभी साँय विश्वनाथ जी के मन्दिर में ऊपर के छत की खिड़की में बैठकर भगवान शिवजी की सुन्दर झाँकी देखते हुए शिवजी का दिव्य स्वरूप जगमगाता दिखता। कभी गंगा किनारे माता पार्वती की झाँकी दिखती। एक बार साधना की मस्ती में रात को 9 बजे गंगाजी लौटते हुए निवास के समीप आने पर देखा कि एक स्थान पर रामायण चल रही थी। परन्तु जिनके घर रामायण हो रही थी वे ठीक से रामायण नहीं पढ़ पते थे और पड़ोसी लोग दिन में तो पाठ करते रहे लेकिन रात के लिए कोई उपलब्ध नहीं हो रहा था। निष्काम भगवत भजन का सुअवसर देखकर मैंने अपनी सेवा उनको प्रस्तुत कर दी। रात 9.30 बजे से प्रातः 6 बजे तक अकेले एक बैठक बिना पनि या लघुशंका को उठे पाठ करते रहे। इस शरीर में इतनी सामर्थ्य नहीं थी परन्तु भगवत कार्य के लिए भगवान कार्य के लिए भगवान ने ही दैवी शक्ति प्रदान कर दी।

About Revered Sripad Baba by a famous Hindi writer and novelist


श्रीपाद बाबा

(व्रज अकादमी की स्थापना के दशम वार्षिकोत्सव पर)

डा.भगवती शरण मिश्र

(हिन्दी के प्रसिद्ध  लेखक एवं उपन्यासकार)

 
      आप वृन्दावन जाए और ब्रज अकादमी का परिभ्रमण न करें और इसके संथापक-संचालक श्री श्रीपाद बाबा जी के दर्शनों का लाभ आपको नहीं मिले तो आपकी यात्रा अपूर्ण ही रहेगी। यों तो यहाँ कालिंदी-कूल पर महान संत श्री देवराहा बाबा ने भी अपना डेरा डाल रखा है और धर्म-परायण पर्यटक व तीर्थयात्री उनके आशीर्वाद की कामना से उनके आश्रम तक जाना नहीं भूलते पर, ब्रज-अकादमी और श्री श्रीपाद बाबा जी के महत्व का आयाम तो कुछ और ही है।

      आज से अनेक वर्षों पूर्व एक अपूर्व आभा-मंडित, विलक्षण जटाओं से युक्त एक सिद्ध- साधक ब्रज की भूमि पर सहसा प्रकट हुआ था। उसकी आँखों में साधना, आराधना और तप का तेज था तो उसकी जिव्हा पर विराजमान थी साक्षात सरस्वती, जिस किसी को उसको दर्शनों का सौभाग्य मिलता वह चमत्कृत हो जाता। उसे लगता निश्चय ही हिमालय की कन्दरायों अथवा किसी वन-विपिन से सीधे निकला आ रहा है यह तेजोदीप्त व्यक्ति।

      लोगों का आकर्षण जिज्ञासा में परिवर्तित हुआ और जिज्ञासा की आपूर्ति श्रद्धा में। जैसे भागीरथी के सही उत्स को ढूंढ निकालना दुस्साध्य है वैसे ही संतों-साधकों  के मूल - जाती, गोत्र और गृह- का पता करना कठिन। फिर आवश्यकता भी क्या थी अतीत के पत्तों को उकेरने की जब सिद्धि और साधना वर्तमान बनकर सामने विराजमान थी?पासंतोष मिला भय-चिंता-संकुल मानवता को इस संत से और बदले में लोगों ने अपनी अमित श्रद्धा-भक्ति उड़ेल दी ब्रज-रज से निरंतर सने इसके पदत्राण रहित पैरों पर।  आवश्यकता सीमित थी इसकी- पहनने के लिए एक मात्र अधोवस्त्र और भोजन के नाम पर दो-चार दिनों अथवा सप्ताहोपरांत कोई भी चीज-सूखी रोटी, दूध का एक गिलास अथवा फल के कुछ कतरे।

      सामान्य नहीं था यह व्यक्ति, मात्र भक्ति-भाव का भूखा अथवा भजनों-प्रवचनों और कीर्तनों में अपना समय नष्ट करने वाला। एक आग सी जल रही थी इसके अंर में। सच्चे  अर्थों में कर्मयोगी था यह- कुछ सार्थक कर गुजरने को आकुल। ब्रज की समृद्ध परंपरा-अमूल्य ग्रंथों और पाण्डुलिपियों में बंद यहाँ के विद्वानों और अन्वेषकों तथा रस परंपरा के पोक आचार्यों के अमूल्य विचारों को जमुना-जल में डूबते-उतरते और सिकता-कणों में समाप्त होते देख इस भविष्यदृष्टा का हृदय द्रवित हो आया। कहाँ था गौरांग महाप्रभु का वह वृन्दावन जिसे उन्होने अपने अलौकिक अन्तर्ज्ञान से कोई पाँच सौ वर्ष पूर्व ढूंढ निकाला था; कहाँ था बृजवासियों का वह स्वाभिमान जिसने संगीताचार्य स्वामी हरिदास के रूप में महान मुगल सम्राट अकबर को भी अंगूठा दिखाया था? कहाँ प्रवाहित थी वृन्दा-विपिन में भक्ति की वह रस-धार, जिसमें सराबोर हो लोग रसो वै सः की उक्ति को चरितार्थ करते थे।

      कुछ करना करना होगा, ऐसा सोचा इस मनस्वी साधक ने। यों ही नहीं समाप्त होने देना होगा उस धरोहर को जो पीढ़ियों से बचता-गुजरता बच पाया था ब्रज की उस धरती पर। तब उसने आरंभ किया एक ऐसे स्थान का अन्वेष जहाँ से वह अपने सपनों को मूर्त रूप दे सकें। जो एक ऐसा स्रोत हो जिसका परिवेश मात्र भौतिक नहीं हो, जिसकी जड़ें अध्यात्म और भक्ति की मिट्टी में गड़ी हों।

      अन्वेषण का क्रम जारी रहा। कई स्थान आये इस मनस्वी के ध्यान में, कई इसे अर्पित किए गए। पर किसी ने इसके मन को नहीं बांधा। अंततः मिला वह स्थान जिसकी आध्यात्मिक ऊर्जा ने इसके अन्तर्मन को छुआ, उसे स्पंदित किया। भटकाव की समाप्ति हुई। अध्यात्म पथ के इस अथक पथिक को मंजिल मिली।

      यह मंजिल सामान्य नहीं थी। यह था कभी का एक राजभवन। पर इस मनस्वी को इस राज-भवन से क्या लेना था? इसे तो आकृष्ट किया था भवन के पार्श्व में खड़े राधा-कृष्ण के अति भव्य किन्तु प्राचीन मंदिर ने जिसमें वर्षों से संपादित पूजा-अर्चना ने मंदिर तो मंदिर उसके पूरे परिवेश-इस राजमहल को भी ऊर्जास्वित कर दिया था। इस तपस्वी की अंतर्दृष्टि ने इस सूक्ष्मऊर्जा  और उसकी व्यापकता को ठीक से पकड़ा। इस तथाकथित राजमहल, तथाकथित इसलिए कि राजाओं का यहाँ रहना तो कभी का समाप्त हो गया था, का भौतिक परिवेश भी कुछ अनोखा और आकर्षक था। इसके विस्तृत प्रांगण में शोभित पारिजात वृक्ष, दीवारों पर फैलती-बढ़ती लता-वल्लरियाँ, छतों पर उतरते मयूरों के मोहक जोड़े और महल के चारों ओर खुले पड़े मैदान के करील कुंज, बेर और कदंब के वृक्ष, शाखा-मृगों (बंदरों) की उछल कूद इस सबने जैसे इस काल में द्वापर को साकार कर दिया था; कृष्ण-काल के एक काल-खंड को अपनी सम्पूर्ण समग्रता में यहीं उपस्थित कर दिया था।

      श्रीपाद बाबा को, उस समय के उस प्रायः अपरिचित अनजाने तपस्वी-साधक को यह स्थान भा गया और यहीं स्थापित हो गई ब्रज-अकादमी- ब्रज की समृद्ध संस्कृति, इसकी दीर्घ परंपरा, ज्ञान-विज्ञान और भक्ति-भावना की सृदृढ़ संरक्षिका। आरंभ में, अरण्य में प्रज्वलित एकाकी दीप-शिखा की तरह जलती रही यह अकादमी, जलते रहे इसके संस्थापक श्रीपाद बाबा। अनेक झंझा-झकोरो, असंख्य आँधी-लू, तूफानों को चुनौती दे यह लौ सदा एकलय से जलती रही तो जलती ही रहे।

      धीरे-धीरे सब कुछ हुआ। बाबा के वायनीय विचार ठोस रूप लेने लगे। उनके स्वर्णिम सपने साकार होने लगे। दुर्लभ-ग्रन्थों और पाण्डुलिपियों का संग्रह होने लगा, लुप्त-प्रायः चित्रों का चयन-संचयन आरंभ हुआ और इसी के साथ आरंभ हुआ देशी-विदेशी विद्वानों, अनुसंधान-कर्ताओं का अन्वेषग-गवेषग जिसने बाबा के सपनों के कई आयामों को रूप-प्रदान करना आरंभ किया।

      ब्रज-अकादमी आज अपना दसवां वर्ष पूर्ण कर रही है। यह अभी पूरी तरह किशोरी भी नहीं हुई किन्तु प्रौढ़ा के सभी गुण इसमें समाहित हो चुके है। अब तक यह इतनी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन गोष्ठियाँ आयोजित कर चुकी है और विभिन्न असरों पर ऐसे मनोभावन और उपयोगी सामाग्री प्रकाशित कर चुकी है कि बाबा की कार्य क्षमता के साथ-साथ इनके सौन्दर्य-बोध (स्थेटिक सैन्स) की सराहना करनी पड़ती है। उदाहरणार्थ, गत वर्ष की पर्यावरण की अन्तर्राष्ट्रिय गोष्ठी में भारतीय व अन्य देशों के विद्वानो के साथ फ़्रांस के कई शिक्षाविदों ने भी इसमे भाग लिया था।

      गोष्ठियों की वर्तमान कड़ी के रूप में ज्योति पर्व (दीपावली) कि पूर्वसंध्या पर ब्रज-अकादमी के द्वारा आयोजित यह संगोष्ठी भविष्य के लिए एक ऐसी शिक्षा-व्यवस्था की परिकल्पना करती है जो शिक्षा को व्यवसायोन्मुख व विघटनशील तत्वों से तो चाये ही जीवन-मूल्यों की पुनःस्थापना में भी सहायक हो। यह शिक्षा प्रणाली अतीत और अनागत के मध्य एक समन्वय सेतु के रूप में कार्य करे तथा आर्यावर्त की वैभवशाली परंपरा के अनंत ज्ञान सागर से मूल्यवान सीपीयों की खोज करके जनमानस के जीवन में प्रतिष्ठित करने मे सहायक सिद्ध हो ऐसी हमारी शुभकामना है।  

Saturday, November 24, 2012

Shri Aurobibdo's Siddhi Diwas (24-11-1926) at Aurobindo Ashram

All around the world, Shri Aurobindo's and the Mother's desciples, devotees and people desiring their grace and blessings celebrate the Siddhi Divas of Shri Aurobindo on November 24 every year, mostly by joycely conducting and particiapting in group mediations and prasad distribution. This is one of the most important Darshan day, on par with darshan days of Aurobindo's and the Mother's birthdays. At Shri Aurobindo Ashram, a large number of devotees visit Shri Aurobindo's room pay their respect and meditate at the Samadhi of Shri Aurobindo and the Mother on this day. Sri Aurobindo himself wrote on several occasions about the significance of Sidhhi Diwas in his own sadhana for supramental realisation and light leading spiritual progress of the world to a new level.

In October 1935 he wrote the following : “The 24th November, 1926, was the descent of Krishna into the physical. Krishna is not the supramental Light. The descent of Krishna would mean the descent of the Overmind Godhead preparing, though not itself actually, the descent of Supermind and Ananda. Krishna is the Anandamaya; he supports the evolution through the overmind leading it towards his Ananda.” Thus "the Delight consciousness in the Overmind which Sri Krishna incarnated -as Avatar- descended on this day into the physical, rendering possible the descent of the Supermind into Matter". (http://nextfuture.aurosociety.org/the-day-of-siddhi).

I too have visited Ashram many a times on this day and participated in all the programmes. These events have been very important in my life's journey. May Shri Aurobindo and the Mother bless us all on this occasion. 

Tuesday, November 20, 2012

DIVINE PLYAS (LEELAS) OF SRIPAD BABA: EXPERIENCE GYAN PRAKASH

My guru Sripad Baba has exhibitted a number of miracles in different periods of his life. All his miracles have been quite subtle. They were mainly aimed at incentivising the efforts of his devotees toward God realisation and increasing their devotion towards various gods and goddesss, particulry Radha-Krishna. Sometimes, these miracles were also the outward reflections or manifestaions of his enternal or inner state of consciousness. Many people have seen or found him in the state of deep trance with no sign of life. Once, when Temple of Bdrinath was opened after winter season, Baba then a teen ager was found inside. Many a times he apeared in two three bodied in various palces, sometimes glittered with  divine light. He could reach from one far off place to another in no times. He showed visions of gods and goddes and visions of some past or upcoming events to several devotees. Some devotees also saw him in vision or dream in the form of Shiva or Vishnu or Radha or Shri Krishna. One thing used to be common with most of the people having his first darshan is that they used to feel inward bonding with and love for him. They also used to miss him after going away from him. 

One of the Baba's devotees, Shri Gyan Prakash, resident of Chennai in the 1970, narrated his experience in his letter to Shri Umanath. While having Darshan of Poondi Swamigal along with a group of other devotees at Poondi Gyan Prakash saw "Sripadji Swamiji glittered with very great effulgence and resembled to Lord Narayan Himself".

 
Poondi Swamigal-A great Siddha of Tamilnadu
Young Sripad Baba
This extraordinay event happened when Gyan Prakash  with Baba and a group of devotees went to have darshan of Poondi Swamigal on the day of Thai Pushyam (i.e. 22-01-70)- a great day with extreme spiritual significance. The greatness of Poondi Swamigal is inexpressible and unpaparalel. Baba said "He is of Divine advent. Sripadji Swamiji revealed us all about this great saint Sri Poondi Swamigal at Poondi village." Baba said on another occasion that "Poondi Swamigal belonged to the same siddha tradition of Thiruvannamalia as that of Ramana Maharshi and Seshadri Swamigal.  One can read more about Poondi Swamigal in mrugan.org/bhaktas/poondi.htm