श्रीपाद बाबा
(व्रज अकादमी
की स्थापना के दशम वार्षिकोत्सव पर)
डा.भगवती
शरण मिश्र
(हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक एवं
उपन्यासकार)
आप
वृन्दावन जाए और ब्रज अकादमी का परिभ्रमण न करें और इसके संथापक-संचालक श्री श्रीपाद बाबा जी के
दर्शनों का लाभ आपको नहीं मिले तो आपकी यात्रा अपूर्ण ही रहेगी। यों तो यहाँ
कालिंदी-कूल पर महान संत श्री देवराहा बाबा ने भी अपना डेरा डाल रखा है और
धर्म-परायण पर्यटक व तीर्थयात्री उनके आशीर्वाद की कामना से उनके आश्रम तक
जाना नहीं भूलते पर, ब्रज-अकादमी और श्री श्रीपाद बाबा जी के महत्व का आयाम तो कुछ और ही है।
आज
से अनेक वर्षों पूर्व एक अपूर्व आभा-मंडित, विलक्षण जटाओं से युक्त एक सिद्ध- साधक ब्रज की भूमि पर
सहसा प्रकट हुआ था। उसकी आँखों में साधना, आराधना और तप का तेज था तो उसकी जिव्हा पर विराजमान थी साक्षात
सरस्वती, जिस किसी को उसको
दर्शनों का सौभाग्य मिलता वह चमत्कृत हो जाता। उसे लगता निश्चय ही हिमालय की
कन्दरायों अथवा किसी वन-विपिन से सीधे निकला आ रहा है यह तेजोदीप्त व्यक्ति।
लोगों
का आकर्षण जिज्ञासा में परिवर्तित हुआ और जिज्ञासा की आपूर्ति श्रद्धा में। जैसे
भागीरथी के सही उत्स को ढूंढ निकालना दुस्साध्य है वैसे ही संतों-साधकों के मूल - जाती, गोत्र और गृह- का पता करना कठिन। फिर आवश्यकता भी क्या थी
अतीत के पत्तों को उकेरने की जब सिद्धि और साधना वर्तमान बनकर सामने विराजमान थी? अपार संतोष मिला
भय-चिंता-संकुल मानवता को इस संत से और बदले में लोगों ने अपनी अमित श्रद्धा-भक्ति
उड़ेल दी ब्रज-रज से निरंतर सने इसके पदत्राण रहित पैरों पर। आवश्यकता सीमित थी इसकी- पहनने के लिए एक मात्र
अधोवस्त्र और भोजन के नाम पर दो-चार दिनों अथवा सप्ताहोपरांत कोई भी चीज-सूखी रोटी, दूध का एक गिलास
अथवा फल के कुछ कतरे।
सामान्य
नहीं था यह व्यक्ति, मात्र भक्ति-भाव का भूखा अथवा भजनों-प्रवचनों और कीर्तनों में अपना समय नष्ट
करने वाला। एक आग सी जल रही थी इसके अंतर में। सच्चे अर्थों में कर्मयोगी था यह- कुछ सार्थक कर
गुजरने को आकुल। ब्रज की समृद्ध परंपरा-अमूल्य ग्रंथों और पाण्डुलिपियों में बंद
यहाँ के विद्वानों और अन्वेषकों तथा रस परंपरा के पोषक आचार्यों के
अमूल्य विचारों को जमुना-जल में डूबते-उतरते और सिकता-कणों में समाप्त होते देख इस
भविष्यदृष्टा का हृदय द्रवित हो आया। कहाँ था गौरांग महाप्रभु का वह वृन्दावन जिसे
उन्होने अपने अलौकिक अन्तर्ज्ञान से कोई पाँच सौ वर्ष पूर्व ढूंढ निकाला था; कहाँ था
बृजवासियों का वह स्वाभिमान जिसने संगीताचार्य स्वामी हरिदास के रूप में महान मुगल
सम्राट अकबर को भी अंगूठा दिखाया था? कहाँ प्रवाहित थी वृन्दा-विपिन में भक्ति की वह रस-धार, जिसमें सराबोर हो
लोग “रसो वै सः” की उक्ति को चरितार्थ करते थे।
कुछ करना करना
होगा, ऐसा सोचा इस मनस्वी साधक ने। यों ही नहीं समाप्त होने देना होगा उस
धरोहर को जो पीढ़ियों से बचता-गुजरता बच पाया था ब्रज की उस
धरती पर। तब उसने आरंभ किया एक ऐसे स्थान का अन्वेषण जहाँ से वह अपने
सपनों को मूर्त रूप दे सकें। जो एक ऐसा स्रोत हो जिसका परिवेश मात्र भौतिक नहीं हो, जिसकी जड़ें अध्यात्म
और भक्ति की मिट्टी में गड़ी हों।
अन्वेषण
का क्रम जारी रहा। कई स्थान आये इस मनस्वी के ध्यान में, कई इसे अर्पित
किए गए। पर किसी ने इसके मन को नहीं बांधा। अंततः मिला वह स्थान जिसकी आध्यात्मिक ऊर्जा ने
इसके अन्तर्मन को छुआ, उसे स्पंदित किया। भटकाव की समाप्ति हुई। अध्यात्म पथ के इस अथक पथिक को
मंजिल मिली।
यह
मंजिल सामान्य नहीं थी। यह था कभी का एक राजभवन। पर इस मनस्वी को इस राज-भवन से
क्या लेना था? इसे तो आकृष्ट किया था भवन के पार्श्व में खड़े राधा-कृष्ण के अति भव्य
किन्तु प्राचीन मंदिर ने जिसमें वर्षों से संपादित पूजा-अर्चना ने मंदिर तो मंदिर
उसके पूरे परिवेश-इस राजमहल को भी ऊर्जास्वित कर दिया था। इस तपस्वी की
अंतर्दृष्टि ने इस सूक्ष्मऊर्जा और उसकी
व्यापकता को ठीक से पकड़ा। इस तथाकथित राजमहल, तथाकथित इसलिए कि
राजाओं का यहाँ रहना तो कभी का समाप्त हो गया था, का भौतिक परिवेश भी कुछ अनोखा और आकर्षक था। इसके
विस्तृत प्रांगण में शोभित पारिजात वृक्ष, दीवारों पर फैलती-बढ़ती लता-वल्लरियाँ, छतों पर उतरते
मयूरों के मोहक जोड़े और महल के चारों ओर खुले पड़े मैदान के
करील कुंज, बेर और कदंब के वृक्ष, शाखा-मृगों (बंदरों) की उछल कूद इस सबने जैसे इस काल में
द्वापर को साकार कर दिया था; कृष्ण-काल के एक काल-खंड को अपनी
सम्पूर्ण समग्रता में यहीं उपस्थित कर दिया था।
श्रीपाद
बाबा को, उस समय के उस
प्रायः अपरिचित अनजाने तपस्वी-साधक को यह स्थान भा गया और यहीं स्थापित हो गई
ब्रज-अकादमी- ब्रज की समृद्ध संस्कृति, इसकी दीर्घ परंपरा, ज्ञान-विज्ञान और भक्ति-भावना की सृदृढ़ संरक्षिका। आरंभ
में, अरण्य में प्रज्वलित
एकाकी दीप-शिखा की तरह जलती रही यह अकादमी, जलते रहे इसके संस्थापक श्रीपाद बाबा। अनेक झंझा-झकोरो, असंख्य आँधी-लू, तूफानों को
चुनौती दे यह लौ सदा एकलय से जलती रही तो जलती ही रहे।
धीरे-धीरे
सब कुछ हुआ। बाबा के वायनीय विचार ठोस रूप लेने लगे। उनके स्वर्णिम सपने साकार
होने लगे। दुर्लभ-ग्रन्थों और पाण्डुलिपियों का संग्रह होने लगा, लुप्त-प्रायः
चित्रों का चयन-संचयन आरंभ हुआ और इसी के साथ आरंभ हुआ देशी-विदेशी विद्वानों, अनुसंधान-कर्ताओं
का अन्वेषग-गवेषग जिसने बाबा के सपनों के कई आयामों को रूप-प्रदान करना आरंभ किया।
ब्रज-अकादमी
आज अपना दसवां वर्ष पूर्ण कर रही है। यह अभी पूरी तरह किशोरी भी नहीं हुई किन्तु प्रौढ़ा के सभी गुण इसमें
समाहित हो चुके है। अब तक यह इतनी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन गोष्ठियाँ
आयोजित कर चुकी है और विभिन्न अवसरों पर ऐसे मनोभावन और उपयोगी सामाग्री प्रकाशित कर चुकी है
कि बाबा की कार्य क्षमता के साथ-साथ इनके सौन्दर्य-बोध (स्थेटिक सैन्स) की सराहना
करनी पड़ती है। उदाहरणार्थ, गत वर्ष की
पर्यावरण की अन्तर्राष्ट्रिय गोष्ठी में भारतीय व अन्य देशों के विद्वानो के साथ फ़्रांस के कई
शिक्षाविदों ने भी इसमे भाग लिया था।
गोष्ठियों
की वर्तमान कड़ी के रूप में ज्योति पर्व (दीपावली) कि पूर्वसंध्या पर ब्रज-अकादमी के द्वारा आयोजित यह संगोष्ठी भविष्य
के लिए एक ऐसी शिक्षा-व्यवस्था की परिकल्पना करती है जो शिक्षा को
व्यवसायोन्मुख व विघटनशील तत्वों से तो बचाये ही जीवन-मूल्यों की पुनःस्थापना में भी सहायक
हो। यह शिक्षा प्रणाली अतीत और अनागत के मध्य एक समन्वय सेतु के रूप में कार्य करे
तथा आर्यावर्त की वैभवशाली परंपरा के अनंत ज्ञान सागर से मूल्यवान सीपीयों की खोज करके
जनमानस के जीवन में प्रतिष्ठित करने मे सहायक सिद्ध हो ऐसी हमारी शुभकामना है।
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