संछिप्त जीवनी
श्रीपाद बाबा
1966
1966
(सौजन्य – श्री कनैह्या सिंह, सेवानिवृत्त प्राध्यापक, बदायूं के पास उपलब्ध पाण्डुलिपि से)
कुछ
ज्ञान की सप्त भूमिकाओ मे प्रथम की तीन, शुभेच्छा, विचारणा और तनुमानसा, ब्रह्म प्रकाश के बाहर की है । इन भूमिकाओ मे स्थित ज्ञानी क्रमशः ब्रह्म प्रकाश की परिधि के समीप पहुँचता है। अगली चार अवस्थाओं में चौथी सत्वपत्ति और पाँचवी असंसक्ति भूमिका में स्थित योगी ब्रहमप्रकाश की किरणों को स्पर्श करने लगता है; क्रमशः समीप होता है। छटवी भूमिका पदार्थ भाविनी में योगी पूर्णतया ब्रह्म प्रकाश का स्पर्श कर कुछ प्रवेश भी पा लेता है। अंतिम सप्तमी भूमिका, तुरीया या तुर्यगा, में स्थित ज्ञानी पूर्ण रुपेण ब्रह्म प्रकाश में प्रविष्ट हो जाता है। वह ब्रह्ममय या ब्रह्मस्त हो जाता है। इस भूमिका को कोई बिरला ही प्राप्त करता है।
ज्ञान की इस सप्तम भूमिका को प्राप्त एक महापुरुष छतरपुर (मध्य प्रदेश), खजुराहो के समीप, एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। जिन्होने 2 अगस्त 1965 ई० को इस नश्वर शरीर का त्यागकर शाश्वत ब्रहमपद में प्रतिष्ठित हो गए। जब से इन्होने पंचम भूमिका में प्रवेश किया, तभी से लोक दृष्टि में पूज्य हुए। ज्ञान और भाव (भक्ति) का साथ-साथ आनंद लेने के लिये भारत के प्रायः सभी प्रधान तीर्थों का दर्शन कर छतरपुर में स्थायी निवास किया। इन्हीं महापुरुष के जीवन झांकी का कुछ दृश्य इन्हीं के पथ-पथिक एक ब्रह्म निष्ठ महाभाविक बालक संत (श्रीपाद बाबा) ने लिखी है। लेखक के हृदय को शरीर बाबा के समीप-सानीध्य ने ऐसे घनीभूत रूप से झकझोरा कि उसमें निहित जीवन-मुक्त शरीर बाबा की अवस्था अनुबाद स्वरूप इस जीवनी के रूप मे प्रकट हुई। जैसे हैं इस जीवन के नायक, वैसे लेखक और वैसी ही है इसकी भाषा। अलौकिक का सब अलौकिक ही होना चाहिए।
लेखक श्रीपाद बाबा का संछिप्त परिचय
भगवान के प्यारे मस्त मौलाओं का परिचय कौन बतावे और कौन जाने। बस इतना ही बहुत है कि ये भगवान के हैं और भगवान इनके। जब भी मुझे इनका दर्शन हुआ तब विशेष आनंद प्राप्त हुआ। इनके दर्शन से मुझे विशेष आनंद होता है। मैंने अपनी ओर से इनका नाम “बालक संत” रख लिया है। कभी- कभी पन्ना (खजुराहो के समीप) में आकार दो-चार दिन (इतना बहुत है) ठहर जाते हैं। इससे पन्ना वाले महाराज कह लिया जाय। पूरा समय हंसावस्था में निमग्न प्रवज्या मे ही बीतता है। पर्वत-राज हिमालय विशेष प्रिय हैं। “जस दूल्हा तस बनी बराता” वाली बात है। लिखा जीवनी तुर्यगा स्थित परमहंस की। जैसा नायक वैसा लेखक और वैसी ही अंतर्जगत की भावा। अतः पाठकों को क्लिष्ट अवश्य प्रतीत होगी किन्तु है सारगर्भित;धोनेवाली अंतरमाल को तथा दर्शानेवाली ऊर्ध्वपथ को।
“बदरी”
पन्ना
Meher Baba’s Meeting with Sharir Baba
On November 16th, Baba left Satara for Meherazad. The next day, he left on a mast tour to Uttar Pradesh, accompanied by Eruch, Pendu, Nilu and Baidul. Eruch was driving the car. There were unusually late rains, and at one place, the car had to be ferried from one bank of a stream to the other. The journey continued night and day. At one spot, they learned of a very high Hindu mast named Sharir Baba, who was staying at the residence of the Maharajah of Chhatarpur. The mast, however, was to leave the place at 3:00 P.M. that day and it was already 1:00 P.M.
Baba was very anxious to contact this mast, as he had never worked with him before. They drove at breakneck speed on the rough roads through towns and villages, covering 128 miles in two hours – and reached Chhatarpur exactly at 3:00 P.M. The mast was very old and would drink his own urine. Boxes of rotting sweetmeats and other such things were strewn in his room. A strong stench hung in the air, but the old mast would not allow anyone to clean the place.
Baba was delighted with the contact and remarked, "Our journey of hundreds of miles has been worth it!" Baba was to have been gone for two weeks. But on November 21st, because the men mandali and he were both exhausted, he canceled the rest of the tour to Uttar Pradesh and returned to Meherazad, where he intended to rest for a few days.
(Source: Bhau Kalchuri, Last Mast Journey, Lord Meher, Vol. 15, p. 5126)
ॐ हरिः शरणम
बंदे महापुरुष चरणारबिंदम
सम्पूर्ण मनोराज्य को क्या उसका दर्शन (ईश-दर्शन) किसी भी माध्यम से संभव है? हाँ संभव है महापुरुष (महात्मा) की कृपा से। अपने जनों के कल्यानार्थ वह (ईश) स्वयं अपने धाम से ऐसी आत्माओं को पृथ्वीतल पर भेजता है। ऐसी ही एक महशक्ति का इस धराधाम मेँ 1904 में अवतरण हुआ। दिव्य अस्तित्व सत्ता के लोक से उनका दिव्य सूक्ष्म शरीर महाकारन जगत के सम्पूर्ण क्रिया-कलापों को लेकर छतरपुर की पावन भूमि में प्रकृति निर्मित पंचभौतिक शरीर में अवतीर्ण हुआ। एक भाग्यवान ब्राह्मण माता-पिता ने उनके शरीर को जन्म दिया। अबोधवस्था से लेकर बोधवान होने तक, जगत की सत्ता को लेकर, इस अवनीतल का एवं स्थूल कार्य संबंधी ज्ञान प्रारम्भ हुआ। पैतृक संस्कारों से युक्त उनका बाल्यकालीन नामकरण सुहृद संबंधियों ने रखा। शैशव बेला के उनके मूक अमृत-विस्फोट ने शैशवानंदानुभूति का पटाक्षेप करके बाल्यावस्था में प्रवेश किया (भाव कुछ बड़े हुये)। उनकी पूज्यनीय माँ का प्रेम किस ओझल भाविष्य को देखकर भाव-संतोष की अनुभूति करता होगा, यह उनकी आत्मा ही जानती होगी। उनके आगामी आध्यात्मिक भविष्य की कल्पना किसी को नहीं था। गरिमापूर्ण पुत्रस्नेह से लिप्सित उनके वयोवृद्ध ब्राह्मण पिता को संभवतः इसकी मूक अनुभूति रही होगी। यह उनकी आत्मा ही जान या समझ सकती है। जैसा की शास्त्रो में उल्लिखित है “जीवनमुक्त आत्मा के धरती पर आगमन से उनके मातापिता, जिन्होने उनके शरीर को जन्म दिया, धन्य हो जाते हैं। वह धरती भी जिस पर उनका आगमन हुआ, कृतार्थ हो जाती है। भूलोक में जहाँ-जहाँ वे प्रयाण करते हैं वे स्थान कृत-कृत्य हो जाते हैं; वनस्पति, मूक पशु प्राणी जो उनका पावन दर्शन करते हैं या उनके आत्मिक संपर्क में आते हैं वे सभी कल्याणकामी हो जाते हैं। सचमुच ऐसे महापुरुष देवों को भी पूजनीय होते हैं।
मूक एवं मंथर गति से जब उन्होने बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश किया, तब वे प्राणियों के समक्ष लोक मर्यादा हेतु आए। बुद्धि के अंतर प्रवण मेधा एवं ओज़ के चिंतनस्थ विकास ने देवभाषा संस्कृत का ज्ञान दिया, जिसका माध्यम ब्राह्मण परम्परागत शिक्षा थी। पूर्वजों की परंपरानुसार संस्कृत पढ़ने के अतिरिक्त, उन्होने सभवतः कुछ आधुनिक विद्या भी प्राप्त करने का प्रयास किया हो। किन्तु इस संबंध मे निश्चित ज्ञान का अभाव है। उनके किशोरावस्था से परिचित छतरपुर का जनसमुदाय उनके दिव्य गुणों एवं आध्यात्मिक विचारों की सराहना करता है।
लोकोत्तरीय समृद्धि के अंतर-प्रवण, आत्मचेतना के मूक विकास ने उनकी मनस भूमि मे उद्बुद्ध होना शैशवकाल से ही आरम्भ कर दिया था। एक बर्फीली नदी जब हिम प्रदेश का अतिक्रमण करके, शीतदेश को छोडकर, उष्ण–प्रदेश में प्रवेश पाती है, तब वह अपना तुषार रूप छोड़कर जल रूप प्रवाह ग्रहण करती है, अपने गंतव्य, ध्येय-पथ, की ओर। उसी प्रकार उस आत्म-प्राण महती चेतना ने अपने उत्कृष्ट मनस से उतरकर बाह्य मनस, किशोर एवं युवा की संधि-अवस्था, में रूप एवं चिंतन ग्रहण किया। वास्तव में, तभी से वे प्रकट रूप से आत्म वियुक्त समाधि के अन्वेषन में निकाल पड़े। अर्थात युवावस्था के पूर्व ही गृहत्यागी वन आत्मानुसंधान में चल पड़े। निस्पृह योगी अवनितल के क्षणभंगुर सम्बन्धों को वियुक्त करके जगत विरक्त हो गवेषणा के पथ पर चल पड़ा। काशी की पावन पुरी में उन भिक्षु परिव्राजक को अपनी अभीप्सा पूर्ति हेतु आतिथ्य ग्रहण करना पड़ा। तत्पश्चात काशी में सन्यस्त हो कुछ समय निवास किया। उनकी उपासना शिव के समाधि-स्वरूप की थी, जो उन्हें बाल्यकाल से ही प्रिय थी। खजुराहो के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जिसकी पावन मूर्ति श्री मातेङ्गेश्वर महादेव के रूप में विराजमान है, वे ही इनके शाश्वत गुरु हैं। वास्तव में यहीं से उन्होंने शिव-रात्रि की निस्तब्ध रात्रि में गुरु-दीक्षा पाई थी।
काशी में संस्कृत विद्यापीठ के किसी शाला में उनकी मेधा बुद्धि ने वेद-वेदांग, शास्त्र एवं पौराणिक तथ्यों का उपनिषदगत आत्म गवेषणायें पढ़ी जो उनके उस काल के चिन्तन का मूल विषय था। जिसका मुख्य निस्कर्ष “आत्मा शरीर का द्रष्टा है; मन-बुद्धि-प्राण उसी में संस्थित हैं” था। इस मनन ने इतना तीव्र रूप धारण किया कि उनकी संज्ञात्मक चेतना अर्ध-विक्षिप्त हो गई। संभवतः देह और आत्मा कि पृथक्वता की चेतना को पाने के लिए ही वह अर्ध-विक्षिप्त हुये। इस चेतना कि तन्मयता ने उन्हे आत्मविभोर कर दिया। उनके उस समय की अंतर्मनोदशा की असंश्लिष्ट झांकी गोस्वामी जी के विनय पत्रिका की निम्न चौपाई व्यक्त करती है :--
अनुराग सो निज रूप जो जगतें विलच्छन देखिये ।
संतोष, सम सीतल सदा दम, देह वंत न लेखिए ॥
निरमल, निरामय, एक रस, तेही हरस-सोक न व्यापई ।
त्रैलोक पावन सो सदा जकी दशा ऐसी भई ॥
जबसे उन्हे देह और आत्मा की पृथक्वता का बोध हुआ, तबसे वे अध्ययन छोडकर अल्हड़ जीवन, मुक्तवस्त्र, अर्धविक्षिप्त भाव-युक्त होकर काशी के पावन भागीरथी के किनारे-किनारे विचरने लगे। कभी एक सायंकाल मानिकर्णिका घाट तो दूसरे प्रातः काल दशाश्वमेध घाट; तीसरे सायंकाल विश्वनाथ मंदिर व कभी-कभी अर्धरात्रि की एकांत वेला मे श्मशान भूमि...। तभी से उनकी भाषा आत्मा की भाषा हो गयी; उनका आचरण बेपरवाह अर्धविक्षिप्तता के अनुरूप हो गया। अहा वह कितनी पावन अवस्था होगी जिसकी वस्तुस्थिति, आनंदानुगत समाधि, को लेकर उनका शरीर विचरण करता होगा। वास्तव में तभी से वे अपने को “शरीर” कहकर संबोधित करने लगे। उपनिषदों में ऐसे बहुत से ही आख्यान हैं जिनके मुख्य पात्रों की अवस्था शरीर बाबा के मनुष्येतर स्थिति से साम्य रखती है। जैसा भगवान दत्तात्रेय, मुनि अष्टावक्र एवं जीवनमुक्त शुकदेव के आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक अवस्थाओ के बारे मे शास्त्रो में विवरण मिलता है, ऐसा प्रतीत होता है, वही अतीत शरीर बाबा मे सजीव हुआ था। अन्यथा, यह कैसे संभव है कि वे इतने आत्मरसी हो सके। वैदिक काल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक जीतने आत्मचिंतन के पथी मनीषी हुये हैं उनकी शृंखला में कुछ ज्ञात और अज्ञात; कुछ प्रकट व कुछ अप्रकट समाधि साधक हुए। सृष्टि के आरंभ काल से ही इन दोनों ओजसपूर्ण प्रज्वलित ज्योतिर्मय धाराओं ने मानवीय हृदय तटों का मूक संस्पर्श करके तापनिहित, पीड़ित मानवों को अमृत शांति का तोय दिया। प्रकट साधको ने मानवीय बोधजगत आत्मसंजीवी भाव का संदेश भी दिया। शरीर बाबा व उनकी अर्धविक्षिप्तता इस मूक शृंखला को तत्कालीन मानव से जोड़ने के माध्यम बने। दूसरे शब्दो में, वैदिक काल से अब तक जीतने समाधिनिष्ठ माहपुरुष हुए उनकी उपलब्धियों व अनुभवों को शरीर बाबा ने अपने जीवन मे उतारकर विश्व के सामने प्रकट किया। लेखक के हृदय को भी शरीर बाबा के समीप-सानीध्य ने ऐसे घनीभूत रूप से झकझोरा कि उसमें निहित जीवन-मुक्त शरीर बाबा की अवस्था अनुबाद स्वरूप इस जीवनी के रूप मे प्रकट हुई।
संयतमना शरीर बाबा अपने आत्मोन्मेष अर्धविक्षिप्तता से कभी च्युत नहीं हुए। ज्ञानीजन ज्ञान की सप्तभूमिकाओं के पंचम भूमिका को असंसक्ति कहते हैं। इसका लक्षण है “सविकल्प समाध्यभ्यासेन निरुद्धे मनसि निर्विकल्प समाध्यवस्था संसक्ति” इसमे स्थित योगी ब्रह्म विदूर कहलाता है। इनकी यह अवस्था ज्ञान की इसी पंचम भूमिका से प्रारम्भ हुई जो ज्ञान की चरम (सप्तम) भूमिका तुर्यगा में पर्यवसन लेने के लिये ही शुरू हुई थी। तुर्यगा का लक्षण है “ब्रह्म ध्यानावस्थ पुनः पदार्थांतिरा परिस्फूर्तिस्तूरिया”। अर्धविक्षिप्त होने पर शरीर बाबा प्रायः अर्धनग्न और पंथ पर पड़े हुये कंथाओ को ओढ़े हुए रहते थे। इस अवस्था में वे ब्राह्मीक समाधि समुद्र के तट पर विचरण करते हुए आत्म समाधिस्थ किन्तु देह और जगत की सत्ता के द्रष्टा और परिचायक बनकर रहा करते थे।
एकबार छतरपुर अधिपति अपने परिचारको सहित काशी धाम गये। वे सभी पुण्यस्थलियों का दर्शन करते हुये भागीरथी के तट से गुजर रहे थे कि उनके किसी सचिव को अकस्मात शरीर बाबा दिखाई पड़े। सभी लोग उनकी ओर अभिमुख होकर आदरभाव से आकृष्ट हुये। जिस किसी को उनके पूर्व अवस्था का परिचय था वे सभी विस्मित होकर मन ही मन चिंतन करने लगे कि वे क्या थे और क्या हो गये। किसी को उनकी अर्धविच्छिप्तता का रहस्य समझ में नहीं आया। अधिपति महोदय सहित सभी लोगों ने स्नेहवश उन्हें अपने साथ ले लिया। उन्हीं सहवृंदों के साथ शरीर बाबा काशी धाम से छतरपुर वापस आ गये। छतरपुर में उनकी पूर्वावस्था से परिचित लोग एक अजीब कुतूहल भरी दृष्टि, जाने कितने दृष्टिकोण और बहुरंगी दुनिया के वाह्य दृस्टिकोण से उन्हे देखते। पर वे यह नहीं समझ पते थे कि शरीर बाबा सबके द्रष्टा हो चुके थे।
चेतना के इस अर्धविक्षिप्त अवस्था में शरीर बाबा ने परिव्राजक की तरह तीर्थ यात्राएं भी की। पूर्व दिशा में आत्मानुभूति के पश्चात उत्तराखंड में हिमालय प्रदेश का परिभ्रमण किया। वहाँ उन्होंने समाधि की किन-किन अवस्थाओं मे पर्यटन किया यह रहस्यमय तथ्य है; किन्तु यह निश्चित है कि उन्होंने श्री बद्रीनाथ की दिव्य यात्रा कठिन पथों से की और उनके दर्शन के दौरान विशुद्ध भावमय जगत में रहे। श्री केदारनाथ व गंगोत्री, जो ध्यान की पावन स्थलियाँ और जाह्नवी भागीरथी का उद्गम हृदय हैं, की यात्रा दुर्गम पथों से की। वे मानसरोवर और यमुनोत्री के प्रकीतिस्थ हृदय अवस्थाओं के साथ वहाँ की स्थलियों में भी गए। उनकी हिमालय यात्रा के पावन स्पंदन में क्या-क्या रहा होगा वह सब अगोचर एवं अनिर्वचनीय सा प्रतीत होता है। उत्तराखंड की यात्रा के उपरांत वे भावभूमि व्रज गये। वहाँ श्री कृष्ण के दिव्य सहचर्य में उन्होने व्रज-बधूटी रसिक पथ की अंतरयात्रा की।
शरीर बाबा ने राजस्थान की यात्रा वहाँ के विभिन्न पुण्यस्थलियों के दर्शन हेतु किया। भव्य देवालयों एवं ऐतिहासिक इमारतों की स्मरण भूमि जयपुर में उन्होने गोविंददेव जी के मंदिर में राधा-कृष्ण के जाग्रत मूर्तियों के दर्शन किये। इस मूर्तियों से बहुसंख्यक भक्तों की भवनाएं नित्य प्रात सायंकाल विकीर्ण होती हैं। तत्पश्चात वह गुजरात प्रांत के द्वारका मे द्वारकाधीश के दर्शन के लिए गये। पूर्वकाल में द्वारकाधीश मे ही प्रसिद्ध भक्त कवियित्रि मीराबाई का शरीर तिरोहित हुआ था। श्री कृष्ण के दिव्य भाव मे भावित होकर शरीर बाबा ने द्वारका के समुद्र तटों पर विचरण किया। इस दौरान समुद्र की गंभीर गर्जना के साथ उनके अंतराल में आत्मलहर तरंगित होने लगी।
अंतःप्रेरणा वश अपने परिभ्रमण का ऐहिक इतिहास समाप्त कर शरीर बाबा ने छतरपुर की भूमि में पुनः पदार्पण किया। वह आत्मा मे रमण करने वाले मुनी की तरह छतरपुर की विभिन्न गलियों, सड़कों व पवित्र स्थानों में घूमते रहे। एक समय नगर के बाहर के मोटे हनुमान जी के मंदिर के समीप छह माह तक मौन और निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहे। कभी कोई अन्न जल मुख में डाल देता तो ग्रहण कर लेते अन्यथा निष्चेस्ट पड़े रहते। कभी-कभी प्राणहीन व संज्ञाहीन प्रतीत होते। यह सुनकर छतरपुर अधिपत बाबा के दर्शन हेतु उनके पास आए। वे बाबा के शरीर को सुव्यवस्थित उठवाकर अपने सुरम्य राजप्रासाद नारायण बाग ले गये। वहाँ एक शाला में उन्हें विराज दिया। इस स्थान पर शरीर बाबा कभी संज्ञा शून्य कभी संज्ञा युक्त, कभी समाधि में और कभी अर्धविक्षिप्त की तरह प्रतीत होते। इस दौरान भक्तों व दर्शनार्थियों का आगमन भी होने लगा। आश्चर्य की बात यह थी कि जो कोई भी उनके पास जाता उनके भावनाओं व इच्छाओं को वह उनके अभिव्यक्त किए बिना ही तत्क्षण समझ लेते। अपने चरम आत्मभूमि मे उतरकर इस ऐहिक जगत के व्यक्ति विशेष से संबन्धित विषयों का सारगर्भित विश्लेषण अपनी गूढ़वाणी मे करते। किन्तु कोई भी उस गूढ़ वाणी का अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पता। सभी अपनी अपनी भावना के अनुरूप अपने प्रश्नों का उत्तर छांट लेते और शरीर बाबा की इस योग्यता पर मुग्ध होते।
समीप के भक्तों ने कई बार उनको विलक्षण अवस्थाओ मे देखा। रात्रिकाल में राजप्रासाद के संतरियों ने बहुत बार ज्योतिस्वरूप सूक्ष्म आत्माओं को सूनसान शाला में प्रवेश करते देखा और शरीर बाबा का अजनबी भाषा में उनसे संलाप करते हुये सुना। प्रायः ब्रह्म बेला से लेकर दिन चढ़ने तक व उसके बाद भी उनकी शाला में विभिन्न रागों की सम्मिश्रित विभिन्न प्रकार की विचित्र ध्वनियाँ सुनाई पड़ती थीं। विभिन्न भक्तों ने जिसका अनुभव अनेकों बार किया। ये घटनाएँ व अनुभूतियाँ शास्त्रों में वर्णित नादयोग की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं जो इस महापुरुष के माध्यम से हुईं। ज्यों ज्यों लोगों को इनके दिव्यत्व का परिचय व लाभ होने लगा त्यों त्यों विभिन्न स्थानों से अपार जनसमूह उनके समीप प्रातः से रात्रि तक आने लगा। राजा से लेकर रंक तक सभी अपनी मूक भावनाओं के साथ शरीर बाबा के दर्शन करते, अपना मंतव्य हासिल करते और उनकी छत्र छाया में पहुँचकर अपने को कृत्य कृत्य महसूस करते। कभी कभी दर्शनार्थियों को शरीर बाबा भिन्न भिन्न प्रकार के शरीरों में दिखाई देते और उनका दर्शन कर उन्हें यथोचित समाधान प्राप्त होता।
शरीर बाबा अपने समीप आने वाले लोगों का अन्तःकरण पढ लेते और उनकी मानसिक अवस्थाओं को अपनी अटपटी भाषा में अनायास ही व्यक्त कर देते थे। इनके इस अबोल बोल के भिन्न भिन्न अर्थ होते थे। अब इस अवस्था मे उनकी वाणी अत्यधिक स्फुट हो चुकी थी और वे अपनी भाषा में निरंतर वक्तव्य करते रहते। आत्म द्रष्टा व आत्मा के अभिभावक के रूप में वे वाह्य एवम अंतराल के किन किन गूढ़ विषयों पर चर्चा करते थे वह सब कुछ “अवाङ्ग मनसगोचरम” था। जब वे मूक (मौन) हो जाते, और सप्ताहों उनकी वाणी मुखर नहीं होती, तब समस्त मानवीय सृष्टि के मूक स्पंदन उनके अवयवों मे प्रकट होकर कुछ इंगित करते हुए प्रतीत होते थे। (अर्थात मौनावस्था में उनके अन्तर भाव बाह्य अवयवों व व्यवहार में प्रकट होते थे।) इन पंक्तियों के लेखक (श्रीपाद बाबा) ने शरीर बाबा के इस अवस्था का सान्निध्य लाभ किया है। शरीर बाबा धीरे धीरे और अधिक उन्मुक्त चेता होते गये। ज्ञान (विज्ञान) की एक-एक भूमिका उनमे इस प्रकार सजीव होने लगी कि वे उन भूमिकाओं के प्रमाण हो गये। ज्ञान कि षष्टम भूमिका जिसे ज्ञानीजन “पदार्थाभावनी” कहते हैं का लक्षण “असंसक्ति भूमिकाभ्यास पात्वाचिर प्रपंचा परिस्फूत्यर्वस्था” है। इस भूमिका को प्राप्तज्ञानी “ब्रह्मविदूरीयान” कहे जाते हैं। जबसे वे ब्रह्मविदूरीयान अवस्था के प्राणी हुए तबसे अपने को शरीर कहकर सम्बोधित करने लगे। सप्ताहों के सड़े गले पदार्थ व मल मूत्र उनके समीप एकत्रित होते जाते। कभी कभी उन गंदे पदार्थों को वे अपने शरीर पर लपेट लेते थे। किन्तु उन्हे तनिक भी घृणा नहीं होती थी। वह निस्पृहता की अवस्था सचमुच कैसी रही होगी जिसमें न तो लोक की परवाह न परलोक की ही। अहा! सचमुच !! वह कितनी उन्मुक्त रही होगी!!!
कितने दर्शनार्थी जो प्रथम बार उनके समीप आते वे यह सब कुछ देखकर मानसिक आत्ममोह में रह जाते कि यह पागल है या महात्मा। जगत का प्राणी एवं उनकी दृष्टि सदा ही अपनी सीमा के अंतर्गत मान्यताओं को यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति मानता है जहां तक उसकी बुद्धि समझती है। किन्तु यह वास्तविकता तो नहीं है जिसके भ्रम और अज्ञान में यावज्जीवन यह प्राणी अविवेक की अवस्था में भ्रमण करता रहता है। वास्तव मे जब हम अपनी संज्ञाओं को महापुरुष की महती संज्ञा में विलीन होने देते हैं तभी मायिक अज्ञान का अंत प्रज्ञा का जागरण होता है। जब हम अपने सीमित अहंकारी सत्ता को किसी महत के सानिद्ध्य में उसकी सत्ता के साथ एकरुप कर देने का संकल्प लेते हैं तभी से आत्मिक जीवन निर्माण की श्रंखला का सूत्रपात होता है। तभी समय आने पर महापुरुष की बृहत अमृत छाया में मानवीय जीवन की सम्पूर्ण अतृप्ति का समाप्तिकरण हो पाता है। साधक अपने क्षणभंगुर चंचल्य की धाराओं को महापुरुष रूपी महानदी की सरिता (धारा) में मिलाकर कितने सुरवी व तृप्त हो सकते हैं, इसकी कल्पना नहीं कि जा सकती है। अहा! यह पावन साधना जिनके जीवन मे प्रवेश पाती है वे पुरुष धन्य हैं। धन्यवाद है उस मनस्विता एवं एक निष्ठा पूर्ण आत्मकामी वृत्ति की।
“शरीर बाबा” का सान्निध्य सचमुच इतना ही पावन था। उनको अपावन और घृणित अवस्था में देखकर कुछ लोगों का हृदय सिहर जाता था। वे स्वयं से प्रश्न करने लगते कि इस पावन समीप में ये अपावन पदार्थ क्यों? कभी-कभी श्रद्धालु भक्तों को, जिन्हें शरीर बाबा का सामीप्य चिन्मय एवं दिव्य प्रतीत होता था, उनके आन्तरिक मनस में और उनके घ्राण के लिए सारी दुर्गंधि सुगंधि में परिणत हो जाती थी। इस घटना को देवता सौरभ एवं आनंद का उन्मेष कहते हैं। ऐसे थे “शरीर बाबा” और उनके समीप का वातावरण।
मन के सूक्ष्माति-सूक्ष्म स्तर में आनंद किरण उतरती हैं और विस्तृत मनोनेपथ्य के अज्ञात अव्यक्त में विलीन हो जाती हैं। यह संज्ञा वह है जिससे “शरीर बाबा” का आनंदमय कोष दिव्य चिन्मय संसार में विचरण करता था, समाधि ही जिसका माध्यम और समाधि ही जिसका उद्बोधन थी। भावनाओं के विनिर्मल विनिर्गता के आलोक पथ में न जाने वे सृष्टि के कितने प्राणियों को लेकर चल पड़े थे, अवर्णनीय गहनतम संसार में जिसको इंगित करने के लिए भाषा की कोई अभिव्यंजना नहीं......! साधक मनोमयी संसार मे ही जिसकी प्रतिच्छाया पड़ती है और कही नहीं। समर्पण ही उस ओर चल पड़ने का प्रयास है एवं आत्मत्याग पूर्ण समर्पण ही निरन्तर अवगहन है। उन तथ्यों को हृदयमयी स्पंदन ही अपने माध्यम से प्राप्त कर सकता है, जो अहंकारिक सत्ता के उस पार जाते है। (अर्थात आत्मसमर्पण के द्वारा ही मायिक सत्ता से निकल परमात्म सत्ता में प्रवेश पाया जा सकता है)। कायिक मानसिक प्राणी को अति क्रमण कर अतिमानसिक आत्मिक विश्व में केवल वे ही लब्ध कर पाते है उस अनिर्वचनीय विनिर्गता को।
शरीर बाबा कल्पतरु थे, जिनके समीप जगती मन की अनेकों वांछनाए पूर्ण होती थी। उनमें आनंदीय निर्झर हृदय नद सम्पन्न सुषमा को लेकर उतार पड़ते एवं प्रस्फुटित तन्मयता में उनके दर्शनोपरांत। विचार की विभिन्न विद्युत रेखाएँ उनके समीप आने वाले भक्तों को अपने और उनके बीच के सानिध्य में जाग्रत होती, जिसका एकाग्रता-पूर्ण प्रतिक्रिया में संख्या रहित लोगों ने उनको नतमस्तक किया होगा, यह कल्पना नहीं किन्तु ध्रुव सत्य है। (भाव उनका दर्शन करते ही अनेकों भक्तों की समग्र इच्छाएं पूर्ण हो जातीं और उन भक्तों को अपार आत्मिक परमानन्द की अनुभूति होती, वे सहसा महाराज शरीर बाबा के श्री चरणों में नतमस्तक हो जाते)। उनका सानिध्य-पूर्ण मूक वार्तालाप एवं उनकी मुक्त हंसी और उनकी गंभीर स्मितता आनंद का आह्लादित विसृंखलन जिसकी श्रिंखला में सभी की “सूत्रे मणिगया इव” हो जाना पड़ता है। (भाव-अपनी मूक वाणी और मधुर मुस्कान से शरीर बाबा आत्मा का तारतम्य मिला देते थे – अपने भावों को भक्तों के हृदय में प्रकट कर देते थे।)
वे कभी कभी किसी को अपशब्द कहते और प्रहार भी करते किन्तु तत्क्षण हँस पड़ते और विस्मृत भी कर जाते। इतना स्वच्छ एवं निर्मल था उनका हृदय कि अनेकों कलुषित हृदय उनके अमृत हृदय नद में स्वच्छ हो जाते। स्वभाव उनका यह था कि कोई भी जो श्रद्धा से भेंट ले जाता अत्यंत उत्सुकता पूर्ण मनोभाव से उसको रख लेते। शरीरको ओढ़ने बिछाने वाले वस्त्र से लेकर आहार तक कि जितनी भी वस्तुएं आतीं, “शरीर बाबा” के एकाधिकार मे रहती थी। ऐसा था उनका स्वाधिकार। कभी कभी तो खाद्यान का ढेर लग जाता, न वे स्वयं ग्रहण करते न किसी को करने देते चाहे वे वस्तुएं सड़गल कर नष्ट भले हो जायें। हाँ जब वे संज्ञा शून्य स्थिति में होते तो उस समय बहुत से चूहे और कुत्ते उन पदार्थों को खाया करते। सचमुच उनका सब कुछ प्रकृति के मूक जीव के लिए था। आत्मस्थ वृत्ति कि उनमें अत्यंत प्रगाढ़ता थी। जंगल से कभी-कभी सर्प देव आकर उनके शरीर पर भ्रमण करते जिसकी उन्हे तनिक भी चिंता न होती। कभी कभी तो रात में उन मूक जंतुओं से वार्तालाप करते प्रतीत होते; जिससे उनकी समदर्शिता प्रदर्शित होती है। वे विक्षिप्त भी महान थे। कितने रोग और कितनी पीड़ाए उनके क्रियमाणिक प्रारब्ध से उतर कर उनके नश्वर शरीर में व्यतीत हो गए, पर उनकी स्वाभाविक वृत्ति में कोई अंतर नहीं आता था। कितनी ही बार लोग उनको घोर ज्वर में पीड़ित देखते व उपचार हेतु औषधि देने का प्रयत्न करते किन्तु वे ग्रहण नहीं करते थे। कभी-कभी उनके अंगों से विशेष कष्ट प्रतीत होता था, दूसरे लोग देख कर दया का अनुभव करते किन्तु अनेकों प्रयत्न करने पर भी उन्होने शायद ही कभी उपचार करने दिया हो।
उनका जीवन आत्मप्रकृति से निर्मित था जिससे यह त्रिगुणात्मक प्रकृति भी उनके अनुरूप थी। आत्मा के चिन्मय अविराम में जिसकी आस्था समाधिस्थ हो शास्त्रों का ऐसा कथन है कि “उस जीवन मुक्त प्रकृति निर्मित शरीर, मन एवं प्राण की दैहिक, मानसिक एवं प्राणिक परिचर्या प्रकृति स्वयं ही करती है”। गीता में जिसे भगवान ने “गुणा गुणेवु वर्तन्ते” भी कहा है। सम्पूर्ण विराट सृष्टि ही उनका शरीर था। रहते दिखाई तो वे एक शरीर में थे पर गीतकार के शब्दों में “उपद्रष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वर” थे। वे समस्त शरीरों के दृष्टा और विराट शरीर आत्मा थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी मौन अवस्था में जगत के मौन प्रदेश में विचरण करते थे। पता नहीं इस सृष्टि के किस-किस अंतराल अन्तरिक्ष में और प्राणियों के मूक मनस में स्थित रहते थे। पर इतना तो सत्य है कि उनके मौनस्थ अर्द्ध विक्षिप्तावस्था के सार गर्भित अर्थ थे। जितेंद्रिय भी वे महान थे। बाल्यकाल से आत्म पंथी थे। अतएव वे स्वाभाविक ही उर्ध्वरेतस ब्रह्मचारी थे। आत्मानुभूति लाभ के बाद वे अंतर्मुखी अवस्था में रहने लगे थे। जिससे उनके चरित्र कि उज्वलता का आभास होता है। मिथ्या अस्तित्व अहंकार को भूल जाने के बाद जो उन्होने पाया था वह था अविनाशी आत्मन। अर्द्धविक्षिप्तावस्था के बाद जिस काल से उन्होंने इस अवस्था में प्रवेश किया वह था अविनाशी का राज्य, जिसकी विरासत उन्होने पाई। अतएव वे बाल्यकाल से त्याग एवं ग्रहण रहित अवस्था मेँ पराङ्ग मुख रहे। सचमुच यह प्रकट सत्य है की उन्होने प्राणियों को ईश्वर के रूप से देखा।
वे अपनी मौज मेँ रहते थे। सहजानन्द की मस्ती मेँ और अल्हड़ तन्मयता में उनका शरीर वस्त्राभरण से मुक्त हो जाता। दर्शकों से घिरे रहने पर भी उन्हे इसका भान न होता। क्योंकि वे शरीर के दृष्टा जो थे। वे जिस भाव मुद्रा में रहते थे उसकी भंगिमा कभी बदलती नहीं थी। अविराम एकरस उन्मुक्त चिंतन मेँ मानवीय बंधन के अष्ट पाशों से वे कितने मुक्त थे, इसका वर्णन नहीं हो सकता क्योंकि वे अवर्णनीय अवस्था के प्राणी थे। सब के लिए समदर्शी थे। युवती, कन्याये, वृद्ध माताएँ कोई भी उनके समीप गईं, सब ने उन्हे आत्मनिमग्न देखा। किसी को भी रिक्त स्थान नहीं मिला उनको आत्मनिमग्नता से दूरदेखने के लिए। उनके लिए उनका शरीर ही मंदिर था। इस क्षणभंगुर अपावन काया को भी पावन किए हुए थे, सांसारिक प्राणियों के जगत में जीवन-मुक्त होकर रहते थे।
ब्राह्मीक समुद्र चिदानंद के तट पर वे सत्ता जगत को विस्मृत कर उसमे मिल चुके थे। किन्तु फिर भी जो अब शिष्ट था वह निश्चित समय की प्रतीक्षा कर रहा था। ब्रह्मविदवरिष्ठ तुर्यगा स्थिति में प्रवेश पाने वाले जीवन मुक्त का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार है कि “उनका शरीर सत्रह दिन या उन्नीस दिन अथवा इक्कीस दिन से अधिक जीवित नहीं रहता, क्योंकि उस अवस्था में प्रारब्ध जर्जर हो जाता है। संस्कारों का कर्मगत क्रियामाणिक आदि भी अवशिष्ट नहीं रहते। अतएव उनका पञ्च भौतिक शरीर क्या लेकर रहे जब उसके गुणों कि प्रतिक्रिया के लिए कोई माध्यम अवशिष्ट नहीं रहा।
एक दिन अनायास शरीर बाबा उस राज प्रासाद कि शाला से उठकर चल पड़े बाहर की ओर। आठ-नौ वर्ष की अवधि रही होगी जब से वह देवता की तरह प्रतिष्ठापित कर दिये गए थे इस शाला में। एक दिन वृक्ष के नीचे आसीन हुये और फिर इसके बाद एक मुसलमान के घर में। सचमुच उसका घर देवालय हो गया। जहाँ सब जाति व धर्म के लोग निःसंकोच “बाबा” के दर्शनार्थ जमघट लगाया करते। नौ माह व्यतीत करने के बाद पुनः कहीं अन्यत्र पधार गए। किसी नगर के सदर बाजार मेँ कहीं रिक्त एकांत स्थान में जा विराजे। ढाई तीन वर्ष वहाँ विराजने के बाद समीप में ही एक सरोवर के तट पर शिव मंदिर में जा आसीन हो गए। उनका शरीर कैसे एक स्थान से दूसरे को स्थानांतरित हुआ यह भी एक रहस्यमय सार गर्भित तथ्य है। क्योंकि वे तो विचरते दूसरी सृष्टि में थे और रहते इस क्षणभंगुर काया में थे। ऐसी अवस्था में शरीर की गतिविधियाँ एवं जगत के क्रियाकलापों को भूल जाना स्वाभाविक ही है। इन दिनों में वे अत्यंत विराम चित्त हो चुके थे। इस समय उनकी भाव भंगिमा एवं हाथ की उँगलियाँ ही कुछ व्यक्त करने का माध्यम थीं जिसके अत्यंत गूढ़ अर्थ होते थे।
वहाँ के उपस्थित लोगों की मनःस्थिति के अनुसार वे प्रायः इस अवस्था में मरणासन्न से दिखाई पड़ते थे। कई बार भक्तों ने उन्हे प्राणहीन समझ कर मृत्यु की आशंका करते पर उन्हे पुनः सजीव पाने पर प्रसन्न व आश्चर्यचकित होते। वास्तव में उनकी यह अवस्था, जिसे ज्ञानी जन ब्रह्मविद्वरिष्ट तुर्यगा की संज्ञा देते हैं, का लक्षण है “ब्रह्म ध्यानावस्था पुनः पदार्थन्तरपरि स्फूर्ति तूरीया”। वह अवस्था मंथर गति से कभी-कभी उनमें प्रतिबिम्बित हो जाया करती थी। तभी तो वे अनवरत इन दिनों प्राणशून्य संज्ञा में घनीभूत से प्रतीत होते थे। जिससे उनकी दैहिक संज्ञाये निश्चेष्ट सी प्रतीत होतीं थी। उनके आत्म जीवन की मुक्त झांकियों के चिंतन करने पर उनकी अभिव्यक्ति अथाह ज्ञान गरिमायुक्त प्रतीत होती है। वे क्या थे – यह एक उदात्त गहन विषय का अरण्य है चिंतक उसमे भटक जाता है। कम से कम जिन्होने उनकी आन्तरात्मिक सन्निधि का मूकलाभ लिया है वे इस ओजसपूर्ण अनुभूति के साक्ष्य हैं। अन्तर्विश्व के मनोजगत में उनकी चेतना ने अनवरत अमृतकण विस्फोट के कार्य किए। एक-एक विस्फोट युगगामी शताब्दियों के नेपथ्य में आने वाले विश्व के आध्यात्मिक निर्माण की प्रतीक्षा कर रहा है। उनके अर्द्धविक्षिप्तता की निस्पृह एवं अलिप्त प्रवाह मे इतनी प्रखर गति व शक्ति है कि उसके मंथर एवं धीर के प्रभाव से प्राणियों के सम्पूर्ण अंतश्चेतना स्नात हो गये होंगे।
अंतिम दिनों का प्रयाणकाल जब उनके समीप था, वे अत्यन्त रूग्ण प्रतीत होते थे। नब्बे दिनों तक आहार छोड़कर दूध एवं जल के सहारे उनका शरीर चला। वे इतने कृश हो चुके थे कि उनके अस्थिपंजर में कष्ट प्रत्यक्ष रूप से दर्शित होता था। यह तो सब उनके शरीर की इह लीला थी पर वे तो कभी से अत्यंत मुक्त थे। घनीभूत ब्राह्मीक प्रतिच्छाया के वे प्राणी आनन्द निकेतन की आत्मा में समाधिस्थ थे। दो एक बार पूर्वाश्रम के बंधुजन उन्हे इतने कष्ट पूर्ण जर्जरित अवस्था में देख कर घबड़ा गये। इन पंक्तियों के लेखक (श्रीपद बाबा) ने 12 जुलाई १९६५ ई० को गुरु पुर्णिमा से एक दिन पूर्व वहीं दर्शन लाभ लिया था। इतनी कष्टमयी असाध्य पीड़ा मे शरीर रहते हुए भी उनको उतना ही आत्मतत्पर एवं प्रसन्न पाया जितना की पहिली अवस्था में जब उनकी आरती एवं पूजा की गयी थी। अपार जन समूह उनके आसपास उपस्थित था। तब वे मेरी ओर अभिमुख होकर अपनी अटपटी भाषा में इंगित किया। जिसका अर्थ था “अब यह शरीर इस लोक से जाएगा”।
दूसरी बार जब उन्हे देखा तब और भी रूग्ण पाया जिसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। मेरा मन उनके ब्रह्मगत देह को देखकर अत्यंत खिन्न हो उठा। दुखभरी उच्छ्वास भर कर उनका सानिध्य ले उनके समीप बैठ गया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की वे शीघ्र ही इस लोक से पधार जाएँगे। मेरा अन्तःकरण इसी चिंतन से उद्विग्न हो उठा कि “बाबा क्षण भंगुर लोक को छोड़ कर शाश्वत दिव्य लोक में बसेंगे”। समय जाते देर नहीं लगता, पवित्र दिवस नाग पंचमी की पूर्वरात्री (२ अगस्त १९६५ ई०) २ १/२ -३ १/२ बजे के लगभग पद्मासनस्थ मुद्रा में ब्रह्मविद्वरिष्ट तुर्यगा का नेपथ्य समाधि पथ की स्वर्णिम वेला में अभिनंदन करता है और वे नश्वर शरीर से सर्वदा के लिये संबंध तोड़ ब्रह्मलीन हो जाते है। क्षणभंगुर शरीर के जन्म काल से लेकर इस अंतिम काल के बीच तक में जीवन सरिता के अंतराल अनुभूति लोक में कितना जल बह गया होगा ---- क्या पता ---?
वे अमर हैं, शाश्वत अमर हैं, आत्मिक अमरत्व में नित्य हैं। क्योंकि वे शाश्वत से आए थे, शाश्वत में रहे, और शाश्वत में स्थित हुए। (जन्म मरण तो क्षण भंगुर – नश्वर शरीर का ही होता है, सो हुआ)। जय जय भक्त-भगवान की।
ॐ, ॐ, ॐ
Jay Jay Sant Sharir
ReplyDeleteJay Jay Sant Sharir
ReplyDeletejay jay sant sharir
Deletejay jay sant sharir
Deletejay jay sant sharir
ReplyDeletejay jay sant sharir
ReplyDeletejay jay sant sharir
ReplyDeleteएक बार दर्शन से सारी मनोकामना पूरी होती है
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसंत शारीर आश्रम का पता - सागर रोड, अदालत के बगल मे, मोटे के महावीर मंदिर के बाजू में छतरपुर
ReplyDeleteछतरपुर का परम सौभाग्य जो येसा सन्त यंहा जन्मा और रहा
ReplyDeleteKindly enter your phone number. Thanks for your comments. Pl. write in comments or at my email if you know anything about Shri Sharir Baba Maharaj.
Deletepkkeshari2012@gmail.com
आठ पहर चौंसठ घरी मची रहत जहां भीर,
ReplyDeleteतहां शरीर सप्तक रचा जय जय संत शरीर