पंडित हरिदास शर्मा
श्रीपाद जी से मेरा प्रथम परिचय लगभग 40 वर्ष पहले श्री बनारसी दास जी खंडेलवाल के निवास स्थान, मोतिया गली कचहरी घाट, आगरा, पर रात्रि बेला में हुआ। हमारे प्रिय भक्त धनीराम जी, बरेली वाले भैया जी आदि अनेकों भक्त उस समय वहाँ उपस्थित थे। श्री खंडेलवाल जी की धर्मपत्नी श्रीमति शांता झालानी के हवेली संगीत पद्धति मे अष्ट-छाप भक्त कवियों की पद रचनाएँ के गायन से सभी श्रोता भक्ति रस में आप्लावित हो रहे थे। मुझे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। जिससे उस महान विभूति के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रीपाद बाबा की उस समय युवावस्था थी। काली दाढ़ी तथा केवल कटि वस्त्र धारण किए हुए- वे विरक्त संत वहाँ विराजमान थे और बारंबार सूरदास आदि भक्तों के पदों को सुनने का आग्रह कर रहें थे।
उस प्रथम मिलन में, परिचय हुआ और वह अति स्नेह में परिवर्तित होता गया। उसके बाद उनका कुछ दिन निवास "श्रीनाथ जी की बैठक" छिली ईंट रोड, घटिया फुलट्टी बाज़ार डाकखाने के पास रहा। वहाँ पर मैं नियमित सत्संग करने जाता था। सर्दी के दिनों में भी उन्हे एक चादर ओढ़े ही देखा। वीतरागी श्रीपाद जी निराभिमानी एवं गंभीर मुद्रा में रहते थे। कुछ दिनों बाद पं धनीराम जी के आग्रह से डा. भैया सुमेश उपाध्याय, श्री महेश उपाध्याय के घर मोती कटरा में, मैं सायंकाल नित्य श्रीमद भागवत की कथा सुनाने जाता था उसमें उनके परिवारी जन तथा आस पास के भक्त जनो के अलावा काफी वकील भी आते थे। यह कार्यक्रम महीनों चला। ऐसा अनुभव होता है कि श्रीपाद जी बाबा त्रिकालज्ञ थे या वे जान लेते थे कि कब और कहाँ क्या प्रोग्राम हो रहा है। मैं चकित हो गया जब कि कथा के मध्य श्रीपाद जी अचानक पधारे और आकर श्रोता बन कर गंभीर मुद्रा में बैठ गए।
कंचन और कामिनी से दूर निरभिमानी बाबा श्रीपाद जी के विषय में जितना लिखा जाए उतना ही थोड़ा है। इसी प्रकार एक दिन सदर बाज़ार में श्री मोती तरल मांगलिक के घर हम लोग होली उत्सव मना रहे थे जिसमें डा. शशि तिवारी अध्यक्ष संस्कृत विभाग आगरा कालेज, भक्त प्रवर धनीराम जी भी शामिल थे। वैष्णव भक्तों की मंडली होरी के ध्रुपद, धमार तथा रसिया गायन के भक्ति रस में मग्न थी। रात्रि का समय था और अचानक बाबा श्रीपाद जी पधारे। सभी अवाक रह गए, वृन्दावन से बिना सूचना व पता के अचानक इस उत्सव में कैसे पधारे? यही भान होता है कि वे अनुभवी महात्मा थे। उन्हे भगवत्कृपा से वृन्दावन में निवास करते हुये भी यह पता चल जाता था कि कब कहाँ क्या उत्सव हो रहा है और वह वहाँ तुरंत प्रगट हो जाते थे। वहाँ मेरे साथ फोटो भी खिचवाया और मुझ से कहा, कुछ लिखते हुए खिचवाइए। प्रोफेसर सजोनवा, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मास्को विश्वविद्यालय, अष्ट छाप के भक्त शिरोमणि श्री सूरदास जी पर पीएचडी करने भारत पधारी। नागरी प्रचारणी सभा में उनका स्वागत समारोह हुआ परंतु प्रवचनों में किसी ने यह नहीं समझाया कि सूरदास जी पर किसकी कृपा हुई और सजोनवा जी ने अपने प्रवचनों में यही कहा कि जिनकी कृपा से सूर स्वामी सूरदास जी बने उन महाप्रभु श्री मद वल्लभाचार्य जी के बारे में बताइये। वे श्रीपाद जी के संपर्क में आई और उन्होने उन्हे मेरे पास भेजा। मैंने उन्हे जगद् गुरू महा प्रभु वल्लभाचार्य जी के बारे में पूरी जानकारी दी तथा श्रीनाथ जी की प्रथम चरण चौकी बैठक जी फुलट्टी बाज़ार डाक खाने के पास मेरा उनके साथ फोटो भी खिचा।
मैं उन दिनों शीतल गली में रहता था एक दिन दोपहर को अचानक श्रीपाद जी मेरे घर पधारे। मैं दर्शन कर प्रसन्न हो गया, स्वागत किया। वे मेरे पास बैठ गए और बोले "दिल्ली में श्री सूरदास जी" नाम का नाटक खेला जावेगा जिसमें तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डा. बी डी जत्ती भी उपस्थित रहेंगे। डा. बसंत यामदग्नि जी उसकी व्यवस्था कर रहे हैं। उसमें आपको सपरिवार आना है और जगद् गुरू शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद संस्थापक महाप्रभु श्रीपाद वल्लभाचार्य एवं सूरदास जी पर प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध भी कराना है। मैंने तुरंत एक अंग्रेजी की पुस्तक प्रदान की Mahaprabhu Vallabhacharya- His Religion and Philosophy. मैं दिल्ली गया जहाँ उन दिनों महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के वंशज आचार्य गो. श्री 108 श्री पुरुषोत्तम लाल जी महाराज, कोटा- मथुरा, भी बिराजमान थे। श्रीपाद जी ने उन्हे भी विनम्रता पूर्वक पधारने का आग्रह किया और महाराज श्री के प्रवचन भी नाटक की समाप्ति पर कराये। उसी समय हाल में वैष्णव भक्तों की जय जयकार ध्वनि गूंज के बीच मेरा परिचय डा. बसंत यामदग्नि जी से कराया तथा मुझसे मार्गदर्शन की इच्छा जताई जो मैंने तुच्छ बुद्धि अनुसार जहां तैयारी हो रही थी वहाँ जाकर प्रदान की। उप-राष्ट्रपति जत्ती जी के साथ पूज्यपाद बाबा श्रीपादजी, पूज्यपाद आचार्य प्रवर महाप्रभु श्री मद वल्लभाचार्य वंशवंतस श्री 108 श्रीमद गोस्वामी श्री पुरुषोत्तम लाल जी महाराज और मैं भी बिराजमान था। बाबा श्रीपाद जी में न तो सांप्रदायिक भेदभाव था, न ही संकीर्ण भावना थे। वे उदारमना थे। वह सभी संप्रदाय के आचार्यों व विद्वानों को पूर्ण सम्मान प्रदान करते थे और सभी के साथ समानता का व्योहार करते थे।
एक बार 84 कोस की ब्रजयात्रा उठी- जतीपुरा में मुखारविंद पर कुनवाड़ा (छप्पन भोग) के दर्शन हो रहे थे। मैं दर्शन कर रहा था। अचानक पाया की बाबा श्रीपाद जी मेरे पास खड़े है। मैं उन्हें देखकर दंग रह गया- "अरे बाबा साहब, आओ आपका परिचय ब्रज यात्रा वाले गोस्वामी जी महाराजश्री से कराऊँ"। इतने में बाबा श्रीपाद जी लोप हो गए। मैंने बहुत ढूंढा परंतु न जाने कहाँ चले गए। मैंने समझा वे प्रतिष्ठा नहीं चाहते- शास्त्रों में कहा भी है "प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा"।
एक दिन मैं सुरभि कुंड से अप्सरा कुंड पुंछरी की ओर जा रहा था। वह स्थल आज कल का श्री राधा-कृष्ण का विहार स्थल माना जाता है। करील की कुंजे दर्शनीय है। अचानक पाया कि बाबा श्रीपाद जी एकांत में श्री गिरिराज महाराज की शिलाओं के पास विराजमान हैं। मैं लौटा और ज़ोर से चिल्लाया, "अरे, बाबा श्रीपादजी आप यहाँ?" वह कुछ हँसे, और उठ कर मेरे साथ साथ चल दिये। कई विषयों पर अपने भाव प्रकट किए : (i) सूरदास जी का कार्य सूर स्मारक मण्डल कर रहा है- उसे तुम संभालो (ii) ब्रजभाषा साहित्य बिखरा पड़ा हैं, संग्रहीत होना चाहिए (iii) ठाकुर जी की भक्ति का प्रचार-प्रसार घर-घर में होना चाहिए। ऐसी थी उनकी ठाकुर जी के प्रति सत्य निष्ठा।
एक बार जतीपुरा में श्री गोकुल चंद्रमा जी के मंदिर में पंचम पीठाधीश्वर वल्लभ संप्रदाय के आचार्य परम हंस श्री 108 श्री गोबिन्द लाल जी महाराज संध्या वंदन जप कर रहे थे। वे अष्ट प्रहर जप ही करते रहते थे। मैं भी दर्शनार्थ चला गया। वहाँ देखने पर पाया कि बाबा श्रीपादजी उनकी परिक्रमा लगा रहें हैं। मैं दंडवत करके बैठ गया और बाबा साहब से बातचीत होने लगी। मेरी इच्छा हुई और कहा बाबासाहब आपका परिचय सबसे करा दूँ। वे मुस्कुराए और तुरंत न जाने कहाँ गायब हो गए, बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिले।
श्रीपाद बाबा एकांतिक भक्ति के पथिक थे, उन्हे कोई कामना नहीं थी, अपने आपको जताना भी नहीं चाहते थे। गुप्त ही रहते थे। भक्तों को वे प्रिय थे, उन्हे भगवद भक्त प्रिय थे।
इति शुभम्
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