गुरुतत्व*
श्रीपाद ‘बाबा’, संस्थापक और संचालक, ब्रज अकादमी, वृंदावन
इस
सम्पूर्ण अखिल और निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त जो गुरु तत्व है- चक्षुरून्मीलितम्
येन् तस्मै श्री गुरुवे नमः - उसका सानिध्य और उसकी करुणा दृष्टि को उन्मीलित कर
देने में समर्थ है। एक भाग जीवन रूपी अंधकार से सम्पूर्ण प्रकाश की स्थिति में
स्थापित कर देने की उसकी क्षमता है। प्रति क्षण जो हमारे जीवन के प्रवाह को करुणा
और कृपा से सींच कर कृतार्थ कर देने के लिए आतुर है वह सम्पूर्ण विभुता, व्याप्ति, अखंडता और
परमात्म तत्व की धारण करता है। वह अपनी अपार करुणा से हम सब जीवों के जीवन को
कृतार्थ करता है और हृदय का एकमात्र सानिध्य है। गुरुतत्व की खोज हमारे प्रत्येक
श्वांस का विषय बना हुआ है। प्रत्येक जागृत, स्वप्न और सुसुप्ति की स्थिति में उसका निरंतर अनुसंधान
बना हुआ है। एक बार जब यह अनुसंधान हमारे जीवन में आकांक्षा और समर्पण का विषय बन
जाता है तब अनंत पूर्व जन्मों की, वर्तमान और आने वाले समय की सारी अवधारणाएं ज्योतिर्मय
होने लगती है। गुरु तत्व से सतत प्रवाहित होने वाले आलोक की एक किरण जब हमारे जीवन
को व्याप्त करती है तो कोई अभाव नहीं रहता है। सदा सर्वदा इसकी पूर्णता सम्पूर्ण
देशकाल जनित प्रवित्तियों को चिन्मय बना देने में समर्थ है।
गुरु
तत्व का अनुसंधान हमारी उपासना बन कर, हमारे श्वांस प्रति श्वांस में स्थिरता बन कर, हमारे जीवन का
पाथेय बन जाय। गुरु का अनुसंधान, जीवन का आधार
बनकर, जीवन का आधार
बनकर, जीवन की उपासना
भूमि में विराजमान होकर और उसके उपरांत जो चिन्मय वृन्दावन है उसका आलोक बिखेरने
में सतत उत्सुक है। वृन्दावन की विकसित होने वाली भाव-भूमि अथवा रस-भूमि, गुरु की अवधारणा
और गुरुकृपा का ही संस्पर्श है। भावना की अनवरत स्थिति में, जब सम्पूर्ण अभाव
और काल जनित प्रवित्तियाँ ठहर जाती है, उस समय नित्यता के प्रकाश में जीवन दिखाई देने लगता है। जब
तक नित्यता के प्रकाश में जीवन का दर्शन नहीं होता है तब तक जीव अभाव, कुंठा, उत्पीड़न, निराशा, भय और
काम-क्रोध-लोभ-मोह जैसे अहंकार-जनित प्रवित्तियों से आछन्न रहता है। यह सारी प्रवित्तियों, जो अज्ञान, अहंकार और अनात्मा जनित है, उनको सम्पूर्ण शरणागति में पहुंचा देने के लिए
जब हम हृदय का द्वार खोल देते है तब अपना वास्तविक स्वरूप और अपने स्वरूप में
निहित नित्य-एकरसता और नित्य रस-संबंध प्रकट होने लगता है। इसके प्राकट्य के साथ ही विस्मृति
के कारण जो नित्यता का अभाव रहता है वह अभाव, विस्मृति के बाद जो सतत स्मृति है, अर्थात काल के
बाद जो अखंड चेतना की अवस्था है, में जाकर विलुप्त हो जाती है। तो इस तरह करके जो एक अखंड
स्मृति का अतिरेक है वह जीवन में जागता है। और वही फिर हमारे अन्तःकरण के
मल-विक्षेप आवरण का पूर्ण रूप से समाधान करके और जो वृन्दावन निधि है उसको
प्रकाशित करने में समर्थ होता है।
इस
धारणा को, इस स्वभाव को और
इस स्पंदन को निरंतर ग्रहण करने की जो आकांक्षा है, वही साधना है। जब तक यह आकांक्षा नहीं जागृत होती है तब तक
सारे प्रयास, सारी साधना और जितना भी कुछ साधन-साध्य है वह सब अधूरा ही है। जिसके प्रयास
से और जिसके क्षण के स्पंदन से कुछ भी किया हुआ अद्भुत और अपने वास्तविक स्वरूप के
साथ हमारे भीतर अतिरेक बन जाता है, आनंद का उन्मेष बन जाता है, वह स्रोत खुलना चाहिए। उस स्रोत को खोलने की जो मांग है
वही हमारे जीवन की वास्तविक मांग होनी चाहिए। वह स्रोत जीवन की तमाम क्षणिक प्रवित्तियों
के आवरण में विस्मृत हो गया है। जिसके एक क्षण की स्मृति से आत्यंतिक आनंद का
अतिरेक आच्छादित हो जाता है और मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार पीछे रह जाता है, वह जब अंतकरण में, हमारी धारणा में, हमारे जीवन के
प्रत्येक स्थिति के साथ जो निरंतर रस भावित होगा वह हमें नित्य वृन्दावन के
सानिध्य में ले जाने में समर्थ होगा। इस प्रकार से करके जो चिन्मय वृन्दावन की रस
और प्रेम-भूमि है वहाँ पर संबंध-बोध की हिलोरें उठने लगती है और फिर इसी पार्थिव
शरीर, इसी पार्थिव शरीर
में लीला का अनुसंधान स्मरण होने लगता है।
यह संबंध बोध, जो केवल कृपा से ही और कृपा के सानिध्य से पल्लवित, पुष्पित और
विकसित होता है, उसके लिए अनुकूल वातावरण, अन्तःकरण में एक अनुकूल भाव का सृजन और भावना-भावित
प्रवित्तियों का पुनर्जागरण हो ताकि, जड़ता समाप्त होती रहे और उसके बदले जो प्रेम की चिन्मयता
है वह जागृत होती रहे। इस प्रकार का अनुसंधान बना रहे। अंत:करण के पटल पर जो अतीत
है, गया हुआ, बीता हुआ काल है, बना रहता है। इसी
कारण से नित्य नूतन में प्रवेश नहीं होता है। भावना से अभाव को समाप्त करने का जो
प्रयास है वही अपने औए अपने उपास्य को, अपने और अपने उपास्य के बीच जो गुरुतत्व है उसको समझने का
और उसकी कृपा के सहारे आगे बढ़ने का उपाय है। जो अपर जड़ता और माया का प्रभाव है और
जो जीवन के अपने कर्मों की जड़ता है उस सब को उपासना, उपास्य और उपासक के बीच सेतु बना हुआ गुरु तत्व अपनी करुणा
से समाधान करता है। ऐसे सानिध्य को अपने आप को खाली करके ही पाया जा सकता है। जब
तक यद् किंचित हमारे अस्तित्व, हमारे अहंकार की प्रवृत्ति और इन प्रवृत्तियों के सहारे जो
देशकाल खड़ा हुआ है, उसका निराकरण नहीं होता है तब तक वह हमारे अनुसंधान का विषय नहीं है। इसलिए
भावना की नित्यता में जाना है, भावना की नित्यता का बोध करना है। यह जो हमारे पर आरोपित
तीन काल में नहीं है फिर भी प्रतीत होने वाली जड़ता है उसे भावना की सानिध्य से
मिटा देना है। हमारे हृदय की एकांतिक भावनाएं नित्य साम्राज्य से सीधे उतर कर
हमारे हृदय कुहर में प्रेम की विहवलता लेकर आ रही है। किन्तु, जैसे ही अज्ञान
के तिमिर से आच्छादित, अहंकार से जनित प्रवृत्तियों का इस भावना से स्पर्श होता है, वैसे ही ये
निर्मल भावनाएं, जो हमारे हृदय में अतिरेक उत्पन्न करना चाहती हैं, या तो नित्यलीला
से अवतरित भावनाओं का संस्पर्श करके जीवन को कृपा का प्रसाद देने में समर्थ हो
सकती है, हमारी अज्ञानता
से आच्छादित हो जाती है। किन्तु, यह प्रक्रिया एक अनवरत प्रक्रिया है। यह तब तक चलेगी जब तक
कि पुनः ऐसी करुणा हमारे अंतकरण से प्रत्यावर्तित नहीं होती है जो एक नित्य
स्थिरता को, नित्य अनुसंधान को पुनः स्थापित कर दे।
कहने
का तात्पर्य यह है कि वृन्दावन और वृन्दावन में विराजमान श्री राधा-कृष्ण तत्व
हमारी भावना का विषय हो। उनकी सन्निधि, हमारे चिंतन का विषय हो और हमारे अन्तःकरण पर निरंतर उनकी
लीला का अनुसंधान ही थिरकता रहे। यह तब तक चले जब तक कि उसमें एक नित्य स्थिति न आ
जाए और जो नित्य-नूतन है, वह हमारे हृदय में कृपा करके विराजमान न हो जाये। इसलिए
नाम के आश्रय से भावना को गति प्राप्त कराने की व्यवस्था है। श्वास-प्रति-श्वास
में उठनेवाली लहरें हमको निरंतर भाव से भावित कर देने में सक्षम है। हमरी चेतना के
पीछे, जो एक रस समुद्र
उमड़ रहा है वही हमारे श्वास और प्राणों में उद्वेलित हो रहा है, उसी में श्वास
लिया जा रहा है और यह श्वास उसी की थिरकन है। जब तक इस बात का पता नहीं चलता, तब तक हम जड़ता को
ही जीवन बनाए हुए हैं और जड़ता में ही जी रहे हैं। जब यह ज्ञान हो जाता है कि प्राणों के भीतर जो
रस-समुद्र है, वही हमारे जीवन की धारणा है, तब कृपा प्लावित भावना हमारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि को
अपने में आत्मसात करती है, समाहित करती है। यह उसका कार्य है। जहां तक प्रयास-साध्य, साधना-साध्य करने
का कार्य है, वह समर्पण का एक सोपान ही तो है। किन्तु इसके बाद जो इसमे अंतर्निहित है वह
तो अपना कार्य कर रहा है। अतः इस अवधारणा को लेकर अपने भीतर प्रेम को स्थापित करना
है। जैसे ही प्रेम स्थापित होगा वैसे ही जो कृपा की सम्पूर्ण व्याप्ति है और उसका
सम्पूर्ण सानिध्य है वह हमारे हृदय में उठ खड़ा होगा। इसी भावना को, इसी चिंतन को, इसी धारणा को यदि हम जीवन के
प्रत्येक श्वास से जोड़ दें, तो व्यक्तित्व की जो समग्रता है,
जाग्रत-स्वप्न-सुसुप्ति के आवरण के परे एक विस्तृत चेतना के साम्राज्य में जो
नित्य वृन्दावन का परिवेश है- जिसका वलय, जिसकी ज्योति हृदय को आच्छादित किए हुए है- उसका अनिभाव
हमें इसी देशकाल में होने लगेगा। इसलिए, सूक्ष्माति-सूक्ष्म जो भावना का निमज्जन है, निरंतर कृपा का
अनुसंधान है, उसमें शरणागति लेकर मैं नहीं हूँ और तुम्हारी कृपा ही सर्व समर्थ है इसका
प्रति-क्षण बोध होना चाहिए। जब सम्पूर्ण जड़ता उसमें विलीन होने के लिए आगे बढ़ेगी
तब जिस अनुभव हो हम जन्म-जन्मांतर से छोड़ आए थे, जो जीवन की आध्यात्मिक चेतना का अनुभव है, उसका प्रादुर्भाव
होने लगेगा। इसलिए नाम की भावना के साथ जो स्वरूप का चिंतन है, संबंध-बोध है, वह स्पंदित होना
चाहिये। तभी उसमें जो नित्य वृन्दावन का जो लीलातिरेक है वह खुलेगा। ऐसी स्थिति इस
देह के भीतर जो अदेह तत्व है, पाँच भौतिक और गुणात्मक प्रकृति के जो चिन्मयता है, दिव्यता है, वह अनुसंधान का
विषय बनेगा। अन्यथा, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, आदि जो शुद्ध चिन्मय है नित्य-शुद्ध-बुद्ध है, उसके ऊपर आवरणित बने रहेंगे और फिर, जो कालजनित है
अथवा गुणात्मक है, पंच भौतिक है, इसी में जो कुछ अद्भुत व्याप्त है वही हमारे जीवन के प्रत्येक
क्षण का पाथेय बन जाएगा। अतः इसी भावना, इसी आकांक्षा और
इसी व्याकुलता को लेकर प्रत्येक क्षण अपने में जाग्रत होना है और जब हम सतत जाग्रत
होंगे तब स्वतः ही एक चेतना का वृत्त अपने अंदर अनुभव होने लगेगा।
श्री
व्यास जी महाराज, जो आदि गुरु है, ने अपार करुणा से
प्लावित और उद्वेलित होकर प्राणियों के लिए, जीवों के लिए गुरु परंपरा को प्रशस्त किया। वे अधिष्ठान के
रूप में, अधिष्ठान तत्वों
के रूप में, प्राणी के हृदय में, हम सब के हृदय में, विराजमान है। जीव के हृदय में गुरु और शिष्य तत्व, जो निरंतर संबंध
स्थापित किए हुए है, उसका अनुसंधान सम्पूर्ण मंगल और कृपा की मूर्ति श्री गणेश जी महाराज कराते
हैं। तदन्तर, शिव तत्व उसको कृतार्थ कर जीव की जड़ता को शरणापन्न कर देने में समर्थ होता
है। तब भक्ति का प्रादुर्भाव होता है। भक्ति के प्रादुर्भाव से स्वरूप का अनुसंधान
होता है और स्वरूप का अनुसंधान होते ही, जो जीव का नित्य-शुद्ध-बुद्ध स्वरूप है उसको मिल जाता है।
इसके मिलने के साथ ही अनंत जन्मों की यात्रा एक क्षण में अक्षुण्ण बन जाती है। यही
इस जीवन का गंतव्य है, यही इस जीवन का लक्ष्य है। इसको प्राप्त कर लेना अथवा जो नित्य प्राप्त है
उसका अनुभव कर लेना हमारे जीवन की आंतरिक मांग है।
इस
प्रकार इस भावना, इस सानिध्य। इस चिंतन, इस समर्पण और इस जिज्ञासा को, जो जीव के हृदय
में निरंतर विराजमान और भगवत तत्व को विराजमान करने के लिए व्याकुल है, उसकी और अभिमुख
होना है। अन्तःकरण के प्रत्येक स्पंदन से, इस मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की प्रत्येक व्यवस्था से, इस सानिध्य को
जोड़ना है। यह सानिध्य जैसे ही जुड़ेगा, निरंतर नामःस्मरण जो अभी केवल प्राणों के स्पंदन से है वह
फिर लीला के स्पंदन से शुरू हो जाएगा और परा, पश्यंती मध्यमा और वैखरी, चरो वाणियां, उसका भजन करने लगेंगी। धीरे-धीरे, वाणी की जो
सूक्ष्म स्थित है, वही आराधना में बादल जाएगी। यहीं जो हमारे जीवन का प्रमाद बना हुआ है वही
उपासना बनकर जीवन कोओजस्वी बनाने में समर्थ होगा। वह जो हमारे जीवन का परम लक्ष्य
है, हमारा प्रेष्य हो
जाएगा और हमारी उपासना का आधार बन जाएगा इस परंपरा को ही गुरु परंपरा कहते है। इसी की अवधारणा करनी है। जितनी
अवधारणा होगी, उतना ही यह सानिध्य हमें सुलभ होगा। इसकी सुलभता प्रति क्षण है यह मानके चलना
है। इस आस्था व विश्वास के साथ जो अब, अभी और इस क्षण है, और जो हमसे अधिक हमको जानता है, जिसके जानने से
ही हमारे में कुछ भी जानना संभव है, उस जाने हुए को जो अपना परम अभिन्न है, को जानना है।
------------------------- *** ----------------------------*A transcription of Baba’s speech on Gurupurnima Utsav (July 12, 1995) at Vraja Academy, Vrindavan-281121